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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘मेरे पास डाक के टिकट हैं। वह चिट्ठी पर चिपकाकर रहमान को दे दूँगी। वह डाकखाने में डाल आयेगा। इससे तुम्हारी बात घर में कोई जान नहीं सकेगा। वह मेरी चिट्ठी पहले भी ले जाया करता है।’’

नगीना इससे बहुत प्रसन्न थी। वह अपने कमरे में गई और अपना लिखा पत्र लिफाफे में बन्द कर ले आई।

प्रज्ञा मन में विचार कर रही थी कि जो वह चाहती थी, वह स्वयमेव हो रहा है। इस पर भी वह समझ रही थी कि दोनों परिवारों में यह बम्ब फटने के समान होगा।

परन्तु बात छुपी न रह सकी। उमाशंकर को पत्र गया और उसका जवाब आया। प्रायः घर की डाक प्रज्ञा के पास आती थी, परन्तु उस दिन घटनावश डाक सरवर के हाथ में चली गयी। वह एक लिफाफे पर नगीना का नाम पढ़ विचार करने लगी कि चिट्ठी बम्बई से उसकी माँ की होगी। इस कारण उसने नगीना की चिट्ठी पृथक् कर शेष तीन चिट्ठियाँ प्रज्ञा के पास भेज दीं।

उस समय नगीना ‘विचित्र वीणा’ पर अभ्यास कर रही थी। वह वीणा की झंकार में लीन अपने कमरे में भूमि पर बैठी हुई थी कि सरवर आई और बोली, ‘‘लो, तुम्हारी अम्मी की चिट्ठी है।’’

नगीना को इस घर में रहते हुए एक सप्ताह हो चुका था और उसे अभी तक अपनी अम्मी को पत्र लिखने की इच्छा अनुभव नहीं हुई थी। इस कारण अपनी अम्मी के पत्र की बात सुन वह मन-ही-मन विस्मय अनुभव करती हुई हाथ बढ़ा पत्र लेने लगी। सरवर ने पत्र देते हुए कहा, ‘‘तनिक पढ़ो! वहाँ की क्या खैर-खबर है?’’

नगीना ने चिट्ठी पर पता पढ़ते ही समझ लिया कि पत्र कहाँ से आया है। इस कारण उसने पत्र खोले बिना अपने सामने रख कह दिया, ‘‘अम्मी! यह खत बम्बई से नहीं आया।’’

नगीना पत्र को अम्मी के सम्मुख खोलना और पढ़ना नहीं चाहती थी।

‘‘तो फिर कहाँ से आया है?’’

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