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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘यहीं दिल्ली से।’’

‘‘यहां किससे चिट्ठी-पत्री करने लगी हो?’’

आज मध्याह्नोत्तर ही प्रज्ञा उसे बता रही थी कि परमात्मा के नियमों का पालन करना की परमात्मा ही परस्तिश (पूजा) है और उन नियमों में सच बोलना प्रथम नियम है।

नगीना परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने के अतिरिक्त भी सत्य बोलना ठीक समझती थी। इस पर भी पहले वह यह नियम पालन करने में कभी ढील भी कर देती थी और समझा करती थी कि सत्य बोलना, सत्य बोलने की ख्याति प्राप्त करने के लिए ही होता है। यहाँ पिछले आठ-दस दिन के प्रज्ञा के उपदेश से वह परमात्मा, जो सबके अन्तरात्मा की बात जानता है, को कम-से-कम बुद्धि से मानने लगी थी।

इस कारण माँ को यह कहते हुए उसकी जबान लड़खड़ा गई। उसने कहा, ‘‘अम्मी! मेरे जान-पहचान का यहाँ एक है। उसको मैंने एक खत लिखा था। यह उसका जवाब है।’’

इतना कहते-कहते तीन बार उसको अटकते देख सरवर समझ गई कि वह कुछ छुपा रही है। वह अपने अनुभव से जानती थी कि नगीना बहुत ही चुस्त बात करने वाली है। तुरन्त उसके मुख से निकल गया, ‘‘तो अपनी अम्मी के सामने झूठ बोल रही हो?’’

इस पर नगीना झेंप गई और अब अधिक सरलता से बोली, ‘‘अम्मी! झूठ नहीं बोल रही। इस पर भी कुछ छुपा रही हूँ। छुपाना तो झूठ नहीं होता।’’

‘‘तो यह तुम्हारी भाभी ने तुम्हें सिखाया है कि दोनों में फर्क नहीं होता। दूसरों को गलत राह पर डालने के लिए कहना, छुपाना ही नहीं झूठ भी है।’’

सरवर ने सामने रखी चिट्ठी उठा ली और आगे कहा, ‘‘तुम्हारे गुरू से जाकर पूछती हूँ, यह छुपाना है या झूठ बोलना है?’’

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