उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘भाभी! अब चोरी रखने में कुछ भी वजह नहीं रही। मगर मैं उनका नाम नहीं लूँगी।’’
‘‘क्यों?’’ सरवर ने ही पूछा।
‘‘मैंने उन्हें खाविन्द के तौर पर मान लिया है और उनकी जाति-बिरादरी में औरतें अपने खाविन्द का नाम नहीं लेतीं।’’
प्रज्ञा ने कहा, ‘‘नगीना! अब तो यह रोक हम पर से उठ रही है। इस पर भी माँ जी, बताती हूँ। हमारी इस कालोनी में एक पंडित रविशंकर शुक्ल रहते हैं। उनके बड़े लड़के से यह रिश्ता करना चाहती है।’’
‘‘मतलब यह है कि तुम्हारे भाई से?’’
‘‘हाँ!’’
‘‘और तुम क्या चाहती हो?’’
‘‘मैं निष्पक्ष हूँ। मेरा मतलब है कि न हक में हूँ, न खिलाफ हूँ। मैं समझती हूँ कि ये इन दोनों के फैसला करने की बात है। मैंने अपनी शादी के वक्त किसी से राय नहीं की थी और मैं समझती हूँ कि ये भी खुद ही फैसला करें।’’
‘मगर अम्मी!’’ नगीना ने कह दिया, ‘‘अभी तो दो साल तक शादी होगी नहीं। तब तक फिक्र करने की जरूरत नहीं।’’
रात मुहम्मद यासीन से सरवर ने उसकी बीवी से अलहदा में बात की। खाने के उपरान्त प्रज्ञा और नगीना बातें कर रही थीं। मुहम्मद ड्राइंगरूम में बैठा कॉफी का प्याला ले रहा था। सरवर उसके पास आ बैठी और बोली, ‘‘आज तुम्हारी बीवी के बड़े भाई की एक चिट्ठी नगीना के नाम से आयी है। वह उससे शादी करना चाहता है। ऐसा मालूम होता है कि कम से कम एक दौर चिट्ठियों का पहले चल चुका है। उसने अपनी चिट्ठी में लिखा है कि उसकी चिट्ठी के जवाब में ही यह खत है।’’
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