उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
5 पाठकों को प्रिय 391 पाठक हैं |
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘वह यह कि खुदा यहाँ और सब जगह हाजिर-नाजिर है और सबके मन के भीतर मौजूद है। वह उन सब में है जो दिखाई देते हैं और उनमें भी है जो दिखाई नहीं देते। मैं उससे चोरी कुछ भी काम नहीं कर सकता। प्रज्ञा ने कुछ भी कसूर नहीं किया। इसलिए उसे पीटूंगा नहीं और वह मुझे छोड़कर क्यों जायेगी? मैं उससे मुहब्बत करता हूँ और दिन-ब-दिन मैं अपने अब्बाजान के मजहब से दूर और दूर हो रहा हूँ।’’
‘‘मतलब यह कि तुम इस्लाम को छोड़ रहे हो?’’
‘‘नहीं अम्मी! मैं मुसलमान हूँ। मगर मैं अब्बाजान वाले मज़हब को नहीं मानता।’’
‘‘तो वह मुसलमान नहीं हैं?’’
‘‘खुदा जाने, वह क्या हैं? मैं अपने को मुसलमान मानता हूँ, मगर मेरा खुदा मुझे किसी बेकसूर को पीटने को नहीं कहता।’’
सरवर उठ पड़ी। उसे इस प्रकार एकाएक उठते देख यासीन ने मां के मुख पर देखा तो उसे समझ आया कि उसकी आँखें भीग रही हैं और माँ उनको छुपाने के लिए भागी जा रही है।
वह कुछ कहना चाहता था मगर वह कमरे से निकल गई थी।
प्रज्ञा ने पृथक् कमरे नगीना से बातचीत कर रही थी।
|