उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘तो इसमें मैं कुछ सहायता कर दूं?’’
‘‘नहीं भैया! ऐसे विषयों में किसी बाहरी व्यक्ति का हस्तक्षेप उचित नहीं रहेगा। मैं अब सज्ञान हूं। सब बात समझती हूँ। मैं अपनी बात स्वयं कर लूंगी।’’
‘‘श्रीपति चुप हो गया। बीच-बीच में कात्यायिनी को खड़वे का पत्र आता रहता था और वह उसे यही लिखती रहती थी, ‘‘अभी प्रतीक्षा करो। यहाँ यत्न हो रहा है।’’
कृष्णकांत जब स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुआ उस समय वह युवकों के ‘लॉज’ में रहने लगा था। युवकों में प्रायः रेल के क्लर्क थे। इसमें से कुछ ऐसे भी थे, जो विवाहित थे, परन्तु अपने परिवार को नगर में नहीं ला सकते थे। उस ‘लॉज’ में किसी स्त्री का वास नहीं था।
कृष्णकांत के मन में जब विवाह की अभिलाषा जागी और विवाह की आशा-पूर्ति को वह दूर होती देखने लगा तो उसका संयम टूट गया। वह इधर-उधर हाथ-पाँव मारने लगा।
वह एक सम्भ्रान्त परिवार की दो लड़कियों को ट्यूशन पढ़ा रहा था। एक लड़की से उसने अनुचित सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न किया तो लड़कियों की माँ ने देख लिया और फिर उसकी शिकायत न केवल स्कूल के हेडमास्टर के पास की गई, वरन् शिक्षा-विभाग के डायरेक्टर के पास भी हो गई। लड़की का पिता डायरेक्टर का परिचित था और कृष्णकांत को न केवल उस स्कूल से निकाला गया, अपितु उसके नाम पर लाल स्याही से चिन्ह बना दिया गया और उसको सदा कि लिए नौकरी के अयोग्य घोषित कर दिया गया।
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