उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
श्रीपति गया तो दोनों अकेले रह गए। खड़वे खाता रहा और बातें चलती रहीं। पढने-लिखने, आयु और ऋतु के सम्बन्ध में बातें चलती रही। सामने रखे उपन्यासों के विषय में बातें होती रहीं। बातें करते-करते रात के बारह बज गए। नलिनी ने कहा, ‘‘अब सो जाना चाहिए। चलिए मैं आपके सोने का कमरा आपको दिखा दूँ।’’
अगले दिन नलिनी स्कूल जाने के लिए तैयार हो चुकी थी कि खड़वे उठा और आँखें मलता हुआ बाहर चला आया। श्रीपति कॉलेज जाने से पूर्व भोजन करने के लिए खाने के कमरे में जा बैठा था। उसने खड़वे को देखा तो कहा, ‘‘सुनाइए, कृष्णजी! रात कैसी बीती?’’
‘‘बहुत आनन्द की।’’ कृष्ण ने कहा और अर्थभरी दृष्टि से नलिनी की ओर देखने लगा। नलिनी का मुख ताँबें की भाँति लाल हो रहा था। श्रीपति उधर नहीं देख रहा था। वह खड़वे के मुख पर देख रहा था। खड़वे ने कहा दिया, ‘‘हमने रात यह निश्चय किया है कि कल रविवार है। कल हमारा विवाह हो जाए तो परसों मैं जनता एक्सप्रेस से अपने लिए स्लीपिंग कोच में बर्थ रिज़र्व करवा लूँ।
‘‘नलिनी जी अभी मेरे साथ नहीं जा सकेंगी। ये कहती हैं कि इनको स्कूल से त्याग-पत्र देना होगा और उसके स्वीकार होने पर ही ये जा सकेंगी।’’
‘‘क्यों नलिनी! ठीक है? श्रीपति ने उसकी ओर देखते हुए पूछा।
नलिनी की आँखें झुकी हुई थीं और उसके मुख की लाली उसकी गर्दन तक जा चुकी थी। वह डाइनिंग-टेबल के सामने कुर्सी पर ही बैठ गई। उसकी टाँगे काँप रही थी।
श्रीपति ने उसके चुप रहने को उसकी स्वीकृति समझा। अतः उसने कह दिया, ‘‘यदि मैं ठीक समझा हूँ तो मुझको आज शीघ्र ही छुट्टी लेकर आ जाना चाहिए और विवाह की तैयारी आरम्भ कर देनी चाहिए।’’
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