उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
नलिनी अभी भी चुप थी। फिर भी वह प्रसन्न ही प्रतीत होंती थी। इस समय कात्यायिनी आ गई। श्रीपति ने उससे कहा, ‘‘माताजी को बुलाना जरा।’’
नलिनी की माँ आई तो उसने कह दिया, ‘‘माँ! कल सायंकाल पाँच बजे नलिनी का विवाह होगा। विवाह के उपरान्त कुछ मित्रों को मैं दावत दूंगा। परसों कृष्णजी नागपुर लौट जाएँगे और जब नलिनी को स्कूल से छुट्टी मिलेगी, यह भी नागपुर चली जाएगी।’’
इस पर खड़वे ने कह दिया, ‘‘मैं वहाँ इसके लिए नौकरी का प्रबन्ध कर रखूँगा।’’
‘‘यह तुम परस्पर विचार कर लो कि किसको नौकरी करनी है और किसका घर समेटना है। एक को तो घर पर रहना ही होगा।’’
खड़वे मुख देखता रह गया। नलिनी ने साधारण रूप में हँसते हुए कहा, ‘‘मैं तो नौकरी करूँगी।’’
‘‘इसका निर्णय विवाह के पश्चात् कर लेना। मेरे मन में यह आता है कि खड़वे जी नौकरी छोड़ यहाँ दिल्ली आ जाएँ। चन्द्र कहीं उनकी नौकरी का प्रबंध कर देगा। मैं घर का प्रबन्ध करूँगी और तुम दोनों नौकरी करना।’’ यह माँ का सुझाव था।
खड़वे को भी यह योजना पसन्द थी। फिर भी वह अपने मुख से यह नहीं कह सकता था कि उसकी सास उसके घर की देखभाल करे। यह नलिनी के विचार करने की बात थी। अतः वह चुप रहा। श्रीपति ने अपनी माँ से कहा, ‘‘माँ! तुम कात्यायिनी को जो कल चाहिए सब सामान की सूची लिखा रखना। मैं एक बजे तक लौट आऊँगा और आज ही सारा सामान खरीदना होगा। कल तो रविवार है।’’
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