उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘नलिनी! तुम स्कूल से कब आ रही हो?’’
‘‘मैं ग्यारह बजे आ जाऊँगी। सोमवार की छुट्टी ले आऊँगी।’’
विवाह की तैयारी आरम्भ हो गई। श्रीपति ने कॉलेज में स्टाफरूम में बैठ हाथ से पचास के लगभग निमंत्रण-पत्र लिख डाले और बीस तो वहीं कॉलेज में अपने साथियों में बाँट दिए। शेष वह अपने महाराष्ट्रियन समाज में बाँटने के लिए साथ लेकर घर जाने के लिए तैयार हुआ तो सुदर्शन भागा हुआ आया और बोला, ‘‘मिस्टर चन्द्रावरकर! बहुत-बहुत बधाई हो! नलिनी रात कितनी देर तक हमारे घर पर रही है, परन्तु उसने तो कुछ बताया ही नहीं।’’
‘‘विवाह के विषय में तो आज ही निश्चय हुआ है। यह तुम्हारी पत्नी का आशीर्वाद ही प्रतीत होता है जो सब कुछ इतनी जल्दी निश्चय हो गया है।’’
‘‘चलो, मैं तुमको अपने साथ ले चलता हूँ। कुछ काम मुझे भी तो बता दो।’’
‘‘चलो। काम तो बहुत होगा। वहाँ चलकर माताजी से राय करके ही काम करना होगा।’’
सुदर्शन ने भी कॉलेज से छुट्टी ले ली और दोनों मदरसा रोड पर आ पहुँचे। खड़वे अपने लिए बाजार से कुछ सामान खरीदने गया हुआ था। नलिनी स्कूल से लौट आई थी और अपने लिए विवाह के वस्त्र-आभूषण इत्यादि तैयार कर रही थी। कात्यायिनी ने उसे कमरे में आकर बताया, ‘‘प्रो० सुदर्शन आए हैं।’’
‘‘क्यों?’’
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