उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
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रात को मिलने पर कृष्णकांत ने कहा, ‘‘मुझको तो कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि इस घर में तुम्हारी भाभी ही सबसे चतुर है।’’
‘‘कैसे पता चला है?’’
‘‘उसने आज इस कमरे में प्रवेश करते हुए मुझको कहा था, कृष्ण! मत समझो कि तुम सबको मूर्ख बना सकते हो। परमात्मा ने प्रत्येक को दो-दो आँखें दी हैं।’’
‘‘हाँ, उन्होंने मुझको भी एकान्त में ले जाकर कहा है–स्त्री इतनी सुलभ नहीं होनी चाहिए, जितनी तुम अपने को बना रही हो। मैं इसका अभिप्राय नहीं समझी थी, परन्तु अब मालूम होता है, वह हम पर जासूसी करती रही है।’’
‘‘तुमको पिछली दो रातों के इस भोग पर पश्चात्ताप लग है?’’
‘‘सच बताऊँ?’’
‘‘हाँ, अब तुममें और मुझमें कोई भेद नहीं होना चाहिए।’’
‘‘परसों ड्राइंग-रूम में बैठी-बैठी मन में आपसे विवाह कि स्वीकृति देने को मूर्खता मानने लगी थी। उसके पश्चात् जब आपको कमरा दिखाने आई तो पता नहीं क्या हुआ, आपने थोड़ी छोड़खानी की और मैं परास्त हो गई।’’
‘‘अच्छा छोड़ों इस बात को। अन्त भला सो भला। यह बताओ, कब आ रही हो नागपुर?’’
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