उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘हाँ, मैंने समझा कि नलिनी अपने शयनागार में होगी। मैं वहाँ उससे मिलने गई। वह शोदा मेरा हाथ पकड़ बैठा। मैंने उसके मुख पर इतने जोर से चपत लगाई कि उसका निशान कई दिन तक उसके मुख पर उसको याद दिलाता रहेगा।’’
‘‘हाँ, उसका बायाँ गाल कुछ सूजा हुआ था। मैंने तो समझा था कि नलिनी की कारगुज़ारी है। अब पता चला कि यह हमारी श्रीमतीजी के शौर्य के प्रदर्शन का चिह्न है।’’
‘‘परन्तु क्या आपने ध्यान नहीं दिया कि उसकी दाहिनी कलाई पर रूमाल बँधा था।’’
‘‘तो वहाँ पर भी तुमने कुछ बहादुरी के कारनामे दिखाए हैं?’’
‘‘चपत खाने पर भी जब उसने कलाई नहीं छोड़ी तो मेरे दाँत उसकी कलाई का रक्त पीने लगे।’’
‘‘तो नर-रक्त का स्वाद ले आई हैं रानीजी।’’
‘‘हाँ नमकीन, नमकीन-सा है। मैं समझती हूं कि उसको जन्म-भर एक अबला के साथ हुआ युद्ध स्मरण रहेगा।’’
‘‘तो तुम विजयी होकर लौटी हो?’’
‘‘बिल्कुल। शत्रु को चारों खाने चित्त कर दिया था। सबसे मज़े की बात तो यह हुई कि युद्ध का अन्तिम दृश्य नलिनी ने भी देख लिया है। जब वह मेरे काटने पर चिचिया रहा था, तो नलिनी उस समय कमरे में आ पहुँची। नलिनी को देख, रक्त से लथपथ अपना मुख पोंछती हुई मैं कमरे से बाहर निकल आई। नलिनी घंटा-भर भीतर रही। मैं समझती हूँ कि वह उसकी कलाई पर पट्टी बाँधती रही होगी तथा उसके गाल पर सेंक करती रही होगी।
‘‘जब वह बाहर आई तो मैं उसकी माँ के पास बैठी उसके पति की प्रशंसा कर रही थी।’’
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