उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘सुन्दरी हमारी लड़की की भाँति हमारे पास पन्द्रह वर्ष तक रही है। मगर हमने प्रायश्चित्त कर लिया है और अब उसे अपने घर में आने नहीं देते। वह भी अब हमसे अधिक धनवान हो गई है। उनके गाँव की आय साठ हजार रुपये हैं। उसमें से आधा उनको बच जाता है। आधा ही राज्य को देना पड़ता है।’’
‘‘मैं नूरुद्दीन से मिलना चाहूँगा।’’
‘‘मैं भगवती को अभी भेज उसे बुलवा लेता हूँ।’’
विभूतिचरण का विचार रात सराय में ही रहने का हो गया। यद्यपि रथ तो उसी दिन गाँव तक जाने के लिए तैयार था, परन्तु पण्डित ने कहा, ‘‘मैं यहाँ से कल आगे जाऊँगा? अगर तुमको आगरे लौट जाना हो तो यहाँ से ही लौट सकते हो। मैं पैदल ही आगे चला जाऊँगा।’’
रथवान ने कह दिया, ‘‘मुझे यह हुक्म है कि आपको गाँव तक पहुँचाना है।’’
‘‘तो तुम भी रात यहीं रहो। घोड़ों को खोल दो और आराम करो।’’
सेठ लक्ष्मीचन्द और उसके साथी यह कहकर कि वे सब कागज़ात तैयार करा रखेंगे, रामकृष्ण को शीघ्रातिशीघ्र वहाँ पहुँचना चाहिए, आगरे को चल दिए। वे सब अपनी-अपनी सवारी में आए थे।
रामकृष्ण ने भगवती को नूरुद्दीन मिर्ज़ा को बुलाने भेज दिया। विभूतिचरण रामकृष्ण के प्रायश्चित की बात से प्रसन्न नहीं था। परन्तु प्रायश्चित्त का जो प्रयोजन था उसे सिद्ध हो रहा देख चुप रहा।
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