उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
पण्डित समझता था कि रामकृष्ण और उसके परिवारवालों ने कोई पाप नहीं किया था। इस कारण प्रायश्चित्त और उपवास की आवश्यकता नहीं थी। इस पर भी वह समझ पा रहा था कि उस उपवासादि से इनकी आत्मा पर से किसी काल्पनिक पाप का बोझा हल्का हो रहा है। इस कारण उसने इस विषय में रामकृष्ण से कुछ नहीं कहा, ‘‘परन्तु बात हुआ बिना नहीं रही।
सायंकाल के समय सुन्दरी एक इक्के पर पर्दा डलवा उसमें बैठी हुई आई। निरंजन देव, इक्के के आगे कोचवान के पास बैठा हुआ था। विभूतिचरण इस युवक को जानता नहीं था। उसने इसे कभी देखा नहीं था। परन्तु इक्के को सराय के भीतर आते देख राधा दुकान से उठ साथ-साथ आई तो पण्डित, जो सराय के प्रांगण में खाट डाले बैठा था, समझ गया कि इक्के में कौन आया है।
राधा सुन्दरी को उतारकर एक दालान में ले गई और नूरुद्दीन पण्डित जी के समीप आ चरण छूकर हाथ जोड़ बोला, ‘‘पण्डितजी! मैं निरंजन देव हूँ।’’
‘‘ओह! और यह बुर्के में तुम्हारी सुन्दरी है?’’
‘‘जी। उसी के द्वारा मुझे आपके विषय में पता चला था और यह भी पता मिला था कि आपने हमारी जान बख्शी कराई है। अन्यथा मुझे यह बताया गया है कि यह जुर्म तो मैंने फाँसी पर लटकाए जाने योग्य किया था।’’
पण्डित मुस्कराता हुआ निरंजन देव की ओर देखता रहा। नूरुद्दीन ने आगे कहा, ‘‘मेरी बीवी सुन्दरी आपके दर्शन कर अपने भविष्य के विषय में कुछ जानना चाहती है।’’
‘‘मगर उसको किसने यह बताया है कि मैंने तुम्हारी जानबख्शी करवाई है?’’
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