उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘इसमें गलती का कारण यह हो सकता है कि मैं समाज के एक गड्ढे में खड़ा बहुत दूर की वस्तुओं को नहीं देख सकता। बेगम बहन एक बुलंद जगह पर बैठी बहुत दूर तक और बहुत अच्छी तरह देख सकती है। मैं उनकी बात को गलत नहीं कह सकता।’’
‘‘तो अब आप अपने घर जाएँगे?’’
‘‘मैं समझता हूँ महारानी जी ने फरमाया था कि मेरी अर्जी परमात्मा के दरबार में मंजूर हो गई है। उस अर्जी में यह माँगा गया था कि मुझे उनके दरबार में बैठ अपना पूजन जारी रखने की इजाजत मिलनी चाहिए।’’
‘‘आपके लिए गाँव तक जाने की सवारी का प्रबंध हो गया है। इस बार आप स्वयं पैदल चलकर यहाँ नहीं आए थे, आपको बाँधकर लाया गया था, इसलिए आपको वहाँ पहुँचाने का उनका कर्त्तव्य हो गया है जो आपको बाँधकर लाए थे।’’
‘‘मैं सल्तनत और उसकी मलिका का शुक्रिया अदा करता हूँ।’’
घर को शाही सवारी में जाते हुए विभूतिचरण भटियारिन की सराय में ठहरा और यह देख संतोष प्रकट करता रहा कि उनके लिए इमारत बनवाई जा रही है। इस पर रामकृष्ण ने कहा, ‘‘पंडित जी! शहंशाह का एक कारिंदा करीमखाँ है। वह सुंदरी के अपहरण के दिन शहंशाह के साथ था। वह उस दिन भी यहाँ आया था जिस दिन शाही सैनिकों ने इस सबको तबाह कर दिया था। इसके उपरांत वह अब तीन दिन हुए तो यहाँ आया था और आपके विषय में मुझसे कुछ पूछ रहा था। मैं न तो आपका नाम जानता हूँ और न ही आपका पता। इस कारण कुछ बता नहीं सका।
‘‘परंतु वह करीमखाँ कहता था कि सुंदरी एक मुसलमान की लड़की है। इस कारण उसने हम सबको भ्रष्ट कर दिया है और हम अब हिंदू नहीं रहे।’’
पंडित इस सूचना से विस्मय में रामकृष्ण का मुख देखता रह गया। कुछ विचार कर उसने पूछ लिया, ‘‘तो यह लड़की, मेरा मतलब है कि सुंदरी, कलमा पढ़ती हुई माँ के पेट से निकली थी?’’
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