उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
|
47 पाठक हैं |
प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
2
संयोगवश निरंजन देव और मथुरा के जासूस इकट्ठे हरिद्वार पहुँचे। उन दिनों हिंदुओं को अपने तीर्थस्थानों पर जाने का कर देना पड़ता था। निरंजन देव नगर चौकी पर कर दे रहा था कि मथुरा के जासूस भी वहाँ जा पहुँचे। उन्होंने अपने-आपको हिंदू लिखाया और निरंजन देव कर देकर उसकी रसील दे रहा था कि एक जासूस निरंजन देव से बोला, ‘‘मगर यह लड़की तो मुसलमान है। इसका कर किसलिए दे रहे हो?’’
‘‘निरंजन देव ने तुरंत कह दिया, ‘‘नहीं खाँ साहब! यह गलत है। किसी और के मुतअल्लिक कह रहे मालूम होते हैं।’’
चौकीवाला इस झगड़े का अर्थ नहीं समझा। उसने कहा, ‘‘ठीक है। अगर दोनों हिंदू हैं तो यह लो रसीद और रास्ता खाली करो। और लोग भी तो हैं।’’
निरंजन देव ने इसे सुअवसर समझ अपना सामान उठाया और चुंगी के कठघरे से निकल सड़क पर पहुँचा और पंडों से वहाँ निवासादि के विषय में पूछताछ करने लगा।
जब पंडो को पता चला कि यात्री को अपने पुरोहित पंडों का ज्ञान नहीं तो दो पंडे परस्पर झगड़ने लगे। निरंजन देव वहाँ से शीघ्र दूर निकल जाना चाहता था और पंडे निरंजन देव की बाँह पकड़ अपनी-अपनी ओर खींचने लगे थे। इस खींचातानी में वही मथुरा का जासूस अब चुंगी के एक सिपाही को साथ लेकर आ गया और पंडों को डाँटने लगा, ‘‘यह क्या कर रहे हो?’’
पंडे इसका अर्थ समझने के लिए चुंगी के मुंशी की ओर देखने लगे। चुंगी के मुंशी ने कहा, ‘‘ये दोनों मुसलमान हैं। तुम इनको कहाँ लिए जा रहे हो?’’
|