उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
मुसलमान की बात सुनते ही पंडे निरंजन देव को छोड़ विस्मय से इन पति-पत्नी का और मुंशी का मुख देखने लगे। इस पर मुंशी ने निरंजन देव से कहा, ‘‘तुम दोनों चुंगी में चलो। तुम मुसलमान हो।’’
निरंजन देव ने अब दावे से कहा, ‘‘कौन कहता है?’’
‘‘यह मथुरा के कोतवाल का आदमी है। यह कहता है।’’
‘‘इसके पास परवाना है कोई मेरे पकड़ने का?’’
‘‘इस पर मुंशी मथुरा के जासूस की ओर देखने लगा। जासूस ने कहा, ‘‘मेरा नाम जफ़रखाँ है। इनको मत जाने दो और मथुरा के कोतवाल से पूछ लिया जाए।’’
मुंशी ने अब जासूस जफ़रखाँ को कहा, यह तुम्हारा काम है कि साबित करो कि यह मुसलमान है या यह औरत मुसलमान है। मैं रोक रखने का अखत्यार नहीं रखता।’’
‘‘अगर तुम इन्हें एक हफ्ते के लिए रोक लेते तो मैं इनके पकड़ने का परवाना ले आता।’’
‘‘यह मैं नहीं कर सकता। तुम यहाँ के कोतवाल के पास जाओ।’’
हरिद्वार का कोतवाल एक हिंदू कायस्थ था। यह बात वह जासूस जानता था कि वह तो इतना भी नहीं करेगा जितना मुशी ने किया है। इस कारण वह बिना कुछ कहे निरंजन देव के पीछे-पीछे चल पड़ा।
इस थोड़े-से झगड़े का एक परिणाम यह हुआ कि पंडे उनको अपने किसी मकान में रखने के लिए तैयार नहीं हुए।
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