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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


ये दोनों गंगा घाट पर जा बैठे। मथुरा का जासूस उनके समीप ही बैठा था। पंडे उनसे कुछ अंतर पर खड़े हो इनको देख रहे थे। वे अनिश्चित मन थे कि इन यात्रियों को गंगास्नान ब्रह्म कुंड पर कराएँ अथवा उनका पीछा छोड़ें।

एक पंडे ने दूसरे पंडे से कहा, ‘‘इस बात की जाँच हो सकती है कि यह युवक मुसलमान है अथवा नहीं। इसकी सुन्नत देखी जा सकती है।’’

दूसरे ने कहा, ‘‘इस मियाँ ने चुंगी पर कहा था कि युवक तो हिंदू है, परंतु एक मुसलमान लड़की को भगा लाया है। यह बहुत बड़ा जुर्म है।’’

एक पंडे ने साहस किया और निरंजन देव के पास आकर बैठ गया। उसने समीप बैठ कहा, ‘‘लाला जी! तो यह मियाँ झूठ कहता है न?’’

‘‘हाँ! यह गुंडा है। मेरी पत्नी पर मुग्ध हो इसे भगा ले जाना चाहता है। यह कह रहा है कि वह मुसलमानिन है और मैं इसे भगा लाया हूँ। यह बात गलत है। यह एक भटियारे रामकृष्ण की लड़की है। मेरा इससे वेदमंत्रों से विवाह हुआ है।’’

‘‘तो लाला! तुम चलो, यहाँ के कोतवाल से बात करें। वह दयावान हिंदू है। वह आपकी सहायता करेगा।’’

निरंजन देव को बात समझ आई तो उठकर पंडे के साथ कोतवाली की ओर चल पड़ा। मथुरा का जासूस भी साथ था।

निरंजन देव और सुंदरी पंडे के साथ कोतवाली जा पहुँचे। कोतवाल मिला तो पंडे ने ही निरंजन देव की कठिनाई का वर्णन किया।

कोतवाल ने मथुरा के जफ़रखाँ से पूछा, ‘‘तुम इसके पीछे क्यों लगे हो?’’

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