उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
जफ़रखाँ ने अपना नाम और पता बताकर कहा, ‘‘मैं इस आदमी के पीछे-पीछे मथुरा से आ रहा हूँ। यह किसी-न-किसी तरह मुझको चकमा देता हुआ चला आ रहा है। यह आदमी इस औरत के साथ, जो मुसलमानी पहरावे में थी, मथुरा में दाखिल हुआ तो कोतवाल ने इसे पकड़ना चाहा। मगर यह वहाँ से चकमा देकर चला आया।’’
‘‘क्यों लाला जी!’’ कोतवाल ने पूछा, ‘‘यह ठीक कहता है?’’
‘‘मैं नहीं जानता कि यह मेरा पीछा कर रहा है और क्यों कर रहा है। मैं कहता हूँ कि मैं आगरा का रहनेवाला वहाँ के एक जौहरी का लड़का हूँ। नाम निरंजन देव है। यह औरत मेरी बीवी है। यह आगरा से दस मील के अंतर पर स्थित एक भटियारे की लड़की है। इससे शादी करने पर मेरे पिता मुझसे झगड़ पड़े थे और मैं उनसे पृथक् में एक परिवार चलाना चाहता हूँ। मैं हरिद्वार में स्नान, पूजा-पाठ कर यहाँ से किसी नगर में जा जौहरी का काम करूँगा।’’
कोतवाल ने पूछा, ‘‘तुम मुसलमान हो?’’
‘‘नहीं साहब! मैं हिंदू हूँ और मेरा नाम निरंजन देव है। मेरे पिता का नाम शंकर देव है।’’
इस पर कोतवाल ने सुंदरी से पूछा, ‘‘तुम किसकी लड़की हो?’’
‘‘मैं सुंदरी हूँ। मेरे पिता का नाम रामकृष्ण भटियारा है और माता का राधा देवी है। मेरा इनसे विवाह हो चुका है।’’
कोतवाल ने मथुरा के जफ़रखाँ से कह दिया, ‘‘देखो खाँ साहब! यहाँ से भाग जाओ। नहीं तो मैं तुम्हें कैदखाने में डाल दूँगा। जाओ, इसकी गिरफ्तारी का परवाना लेकर आओ। नहीं तो मैं तुमको गिरफ्तार कर लूँगा।’’
जफ़रखाँ गया तो पंडे ने अपने परिश्रम का फल पाने के लिए कहा, ‘‘आप मेरे यजमान बन जाइए। मैं आपको स्नान इत्यादि कराऊँगा।’’
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