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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘किसलिए?’’

‘‘मुझे जफ़रखाँ से डर लग रहा है। मैंने इसे सहारनपुर में भी देखा था और इसी के कारण मकान की पिछली खिड़की से भाग आया था। अब यहाँ इसे पुनः देख मैं समझा हूँ कि यह सत्य ही मथुरा से हमारे पीछे लगा है। यह संभव है कि हमारे पकड़ने का परवाना यह मथुरा से मँगवाए। तब हम बंदी बना मथुरा भेज दिए जाएँगे।’’

‘‘मैं तो एक बात का विचार कर रही हूँ।’’

‘‘क्या?’’

‘‘मैं मुसलमान होना स्वीकार कर लूँ और आप मुसलमान बन जाइए। बस, काम बन जाएगा।’’

‘‘मगर मेरी सुन्नत करवा देंगे।’’

‘‘तो इससे आप मर नहीं जाएँगे। लाखों लोग करवा रहे हैं। आप भी करवा लीजिएगा।’’

‘‘इस पर भी जब हम पकड़े गए तो शहंशाह की चहेती रखैल को भगा ले जाने के जुर्म में मैं तो फाँसी पर चढ़ा दिया जाऊँगा।’’

इस पर सुंदरी ने कहा, ‘‘तो हमें शहंशाह की सल्तनत से कहीं बाहर चले जाना चाहिए।’’

‘‘यही तो कह रहा हूँ। हम उत्तराखंड की पहाड़ियों में जाकर कहीं नाम बदलकर बस जाएँगे।’’

‘‘तो रात को यहाँ से चुपचाप चल देना चाहिए।’’

‘‘हां। यही तो कह रहा हूँ।’’

इस निश्चय के उपरांत दोनों ने पेट भर खाया और विश्राम करने के लिए सो गए।

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