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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘मगर जहाँपनाह! मैंने जुर्म किया है तो दंड भोग लूँगा। यह मुसलमान होने की शर्त किसलिए लगाई जा रही है?’’

‘‘यह इसलिए कि हमें मोतबिर जरिए से पता चला है कि सुंदरी रामकृष्ण भटियारे की लड़की नहीं है। यह उनसे पाली जा रही एक मुसलमान की लड़की है।’’

‘‘हुज़ूर! मुझे इस बात का यकीन नहीं आता। आपकी इत्तला गलत भी हो सकती है।’’

‘‘हमने यह बात रामकृष्ण से ही पता की है। यदि तुम कहो तो हम उसे बुलवाकर तुम्हारे सामने कर सकते हैं। उसने और उसके सब घरवालों ने सात दिन का व्रत रखकर प्रायश्चित कर लिया है।’’

निरंजन देव ने विचार किया कि यदि कहने मात्र से वह मुसलमान होने को तैयार है, उसकी जान बख्सी जाती है और सुंदरी भी मिलती है तो उसे मान जाना चाहिए।

उसने कहा, ‘‘मुझे सुंदरी से राय करने की इजाजत दी जाए। अगर यह जानकर भी कि वह एक मुसलमान की बेटी है, वह मेरे साथ रहना चाहती है तो मैं मुसलमान हो जाऊँगा।’’

सुंदरी तो पहले ही हिंदुओं के व्यवहार से क्रोध में भर रही थी। जब शहंशाह ने उसे बताया कि उसका जन्म कैसे रामकृष्ण की सराय में हुआ था तो वह अपने को मुसलमान स्वीकार करने पर तैयार हो गई। निरंजन देव से उसने कहा, ‘‘मैं समझती हूँ कि यदि हरिद्वार में पंडे हमें नहीं रोकते तो हम हिंदू बने रहते हुए जीवन चला सकते थे। इसलिए मेरा मन तो इस कौम से संबंध रखने को करता ही नहीं। शेष रही मुसलमान होने की बात। अगर मैं आपकी बीवी बनकर रह सहूँ तो नाममात्र की मुसलमान भी बन सकती हूँ। वैसे मैं नहीं जानती कि मुसलमान और हिंदू में क्या अंतर है।’’

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