उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
इस कारण पूजा समाप्त होने के अगले दिन विभूतिचरण आगरा के लिए चल पड़ा। उसे दो दिन आगरा पहुँचने में और दो दिन वहाँ से लौटने में लगा करते थे। मार्ग में वह भटियारिन की सराय में ठहरा करता था। इस बार अकबर ने शाही रथ सवारी के लिए भेजा था। रथ और इक्के में अंतर यह था कि इक्का एक घोड़े से चलाया जाता था और रथ दो घोड़ों से। पंडित ने भी बिना माँगे मिलनेवाले रथ का प्रयोग करना अनुचित नहीं समझा। उसका विचार था कि आगरा जाते समय वह भटियारिन की सराय में नहीं ठहरेगा। उनकी सुध वह घर लौटते समय लेगा। आगरा जाते समय जब वह सराय के स्थान से गुजरा तो वह एक के स्थान पर दो इमारतें लगभग पूर्ण हुई देख चकित रह गया। दोनों इमारतें एक-दूसरे से आधा फर्लांग के अंतर पर थीं। इस पर भी दोनों थीं आगरा की सड़क के किनारे पर। वह विस्मय करता हुआ निकल गया।
शहंशाह के सामने पहुँचा तो पहला ही प्रश्न जहाँपनाह ने यह किया, ‘‘पंडित जी! इतनी लंबी पूजा का क्या मतलब होता है? क्या आपके परमात्मा इतने बहरे या अंधे हैं कि वह घड़ी दो घड़ी की पूजा को सुन या देख नहीं सकते?’’
विभूतिचरण हँस पड़ा। हँसते हुए बोला, ‘‘जहाँपनाह! आप पूजा के मायने नहीं समझे, तभी इस तरह की बात करते हैं।’’
‘‘पूजा का मतलब परस्तिश नहीं है क्या? हम भी नमाज पढ़ते हैं। हमारे मुल्ला-मौलाना और आम लोग जो बहुत बड़े गुनाहगार होते हैं, वे दिन में पाँच बार नमाज पढ़ते हैं। मगर मैं तो दिन में एक ही बार नमाज पढ़ता हूँ खुदा मेरी बात इतने में सुन लेता है। मगर आप तो दिन-रात तीन महीने तक पत्थर के साथ पत्थर हो गए मालूम होते हैं।’’
विभूतिचरण ने कहा, ‘‘नहीं, जहाँपनाह! मैं परमात्मा को सुनाने के लिए पूजा नहीं करता। यह तो मैं अपने को सुनाने के लिए कुछ करता और कुछ कहता रहा हूँ।’’
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