उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘मतलब यह कि हमारी पूजा, जिसे हम स्तुति भी कहते है, परमात्मा की स्तुति नहीं होती, वरन् परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव की स्तुति होती है। स्तुति का अभिप्राय है वर्णन करना। मैं परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव का चिंतन करता हूँ और उस पर गौर करता हूँ। परमात्मा के कर्म पर गौर करता हूँ तो उससे चल रहे संसार की गतिविधि का पता चलता है। इसी के आधार पर मैं नजूम लगाता हूँ। इस तरह मेरी पूजा मेरे अपने ज्ञान के लिए होती है।’’
अकबर इसका अर्थ नहीं समझा। उसने पूछा, ‘‘परमात्मा के कामों को जानने से मेरी किस्मत का कैसे पता चल जाता है?’’
‘‘आपका क्या, दुनिया के किसी भी बशर के नेक और बुरे आमालों का पता चल जाता है।’’
‘‘अच्छा बताओ, भटियारिन की सराय का क्या हो गया है?’’
‘‘हुज़ूर! उसका नक्शा तो मैंने ही बनाकर दिया था। इमारत अभी मुकम्मल नहीं हुई। जब होगी तो उनको मैं बताऊँगा कि वह उस इमारत का क्या करें।’’
‘‘तो वहाँ सराय नहीं होगी?’’
‘‘सराय तो होगी मगर वह तो बहुत ही छोटी-सी जगह पर होगी। शेष जो कुछ होगा, वह तो मैं इमारत को देखकर बताऊँगा।’’
‘‘वह इमारत किस मतलब से बनवाई है? हमें तो उसका कुछ सिर-पैर समझ नहीं आया।’’
‘‘हुज़ूर! उसका तो पैर ही अभी बना है। जैसे कोई व्यक्ति पाँव देखकर पहचाना नहीं जा सकता, वैसे ही इमारत के पाँव देखकर इसे कोई पहचान नहीं सकता।’’
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