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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘मैं नहीं जानता, मास्टर जी ! इसपर भी वे नित्य रात को बारह-एक बजे तक काम करती रहती हैं।’’

‘‘तब तो तुम्हें अपनी और अपने भाई की फीस मुआफ करवा लेनी चाहिए।’’

‘‘हम दोनों भाइयों की फीस पाँच रुपये आठ आने ही तो होती है। इससे क्या होगा? मैं तो यह विचार करता हूँ कि कैसे अमीर हो जाऊँ, जिसमें बीसियों निर्धन लड़कों की फीस दे सकूँ।’’

‘‘बहुत अच्छे विचार हैं, फकीरचन्द ! परन्तु विचारों को कार्य में लाने में कठिनाई होती है। इस कठिनाई को दूर करने का ढँग सीखना चाहिए।’’

‘‘क्या ढंग हो मास्टर जी?’’

मास्टर जयगोपाल कुछ देर तक चुपचाप चलता गया। फकीरचन्द अपने प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा में साथ-साथ चलते हुए मास्टर जी का मुख देख रहा था। एकाएक मास्टर ने फकीरचन्द की ओर देखा और पूछा, ‘‘तुम्हारी माँ कपड़े हाथ से सीती हैं अथवा मशीन से?’’

‘‘मशीन से।’’

‘‘हाथ से क्यों नहीं सीतीं?’’

‘‘हाथ से एक कमीज पाँच घण्टे में सी जाती है और मशीन से एक-डेढ़ घण्टे में। हाथ से वे दिन-भर में दो कमीजों से अधिक नहीं सी सकतीं और मशीन से वे दिन-भर में छः कमीजें सी देती हैं।’

‘‘बस यही गुर है अमीर होने का। मशीन मनुष्य की मेहनत को कई गुणा अधिक फलदायक बना देती है। परन्तु मशीन में रुपये लगते हैं।

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