उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘यदि किसी के पास रुपये हों इसपर भी वह मशीन न खरीद हाथ से सीने का हठ करे, तो उसको लाभ नहीं हो सकता। मेरे कहने का मतलब यह है कि रुपया आवश्यक है, परन्तु रुपये का लाभ तब ही हो सकता है, जब उससे मशीन खरीदी जाय।
‘‘देखो, यदि तुम्हारी माँ कुछ रुपया और जमा कर पाँवों से चलने वाली मशीन ले ले तो इससे उसके परिश्रम का फल और भी अधिक हो जायगा। तुम्हारी माँ उतनी ही रोटी खायगी, जितनी वह अब खाती है। परन्तु मशीन बदलने से उसकी आय बढ़ जायगी।
‘‘इसको कहते हैं रुपये को पूँजी का रूप देना। जो व्यक्ति रुपये को पूँजी का रूप दे सकता है, वह धनी हो सकता है। रुपये को पूँजी का रूप देने के लिए मशीन खरीदनी ही चाहिए।’’
‘‘पर मास्टर जी ! मशीन चलाने की भी तो योग्यता होनी चाहिए?’’
‘‘हाँ; पहिले कोई काम सीखो। फिर उस काम में रुपया ऐसे ढंग से लगाओ, जिससे परिश्रम कई गुणा होकर फल दे। तब वह रुपया पूँजी कहलायगा। पूँजी का रूप, मशीन, भूमि अथवा मनुष्यों की मजदूरी भी हो सकता है।
‘‘सो फकीरचन्द ! कोई ऐसा काम सीखो, जिसमें तुमको इन तीनों वस्तुओं का अथवा तीन में से दो अथवा एक का लाभ प्राप्त हो सके।’’
यद्यपि फकीरचन्द मास्टर जयगोपाल की बात को भली-भाँति समझ नहीं सका, तो भी वह इतना तो समझ गया था कि मास्टरजी के विचार में उसका धनी हो सकना असम्भव नहीं। यह तो वह जान गया था कि कपड़ा सीने की मशीन से आठ आना रोज कमाने की अपेक्षा माँ ढाई-तीन रुपये नित्य कमा सकती है। मशीन एक सौ तीस रुपये की मिली थी अर्थात् एक सौ तीस रुपये का ठीक ढँग से प्रयोग करने से माँ की आय बढ़ गई। इसपर भी वह समझ नहीं सका कि स्वयं कौन-सा काम सीखे, जिसको किसी प्रकार की मशीन से अधिक लाभ वाला बना सके।
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