उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
मास्टर तो अस्पताल के समीप से अपने किसी काम चला गया, परन्तु फकीरचन्द के लिए एक समस्या छोड़ गया। उस दिन से फकीरचन्द इस धुन में लीन हो गया कि वह कौन-सा काम करना सीखे, जिसमें वह थोड़ा-सा रुपया पूँजी के रूप में लगाकर, उसको अधिक फलदायक बना सके।
वह दसवी श्रेणी में पढ़ता था और स्कूल के सब मास्टरों का विचार था कि वह मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में वजीफा लेगा और फिर कॉलेज में पढ़कर किसी ऊँची पदवी पर लग जायगा। मास्टरों के इस विचार को वह सुन रहा था। एक दिन स्कूल के अध्यापक ने फकीरचन्द से पूछा, ‘‘फकीरचन्द ! कॉलेज में जाकर क्या विषय लोगे?’’
‘‘पंडितजी ! मैं विचार करता हूँ कि पढ़कर क्या करूँगा? जब मैं माँ को काम करते देखता हूँ, तो बहुत दुःख होता है।’’
‘‘पर जब पढ़ जाओगे, तो अच्छा वेतन भी तो तुम ही पाओगे।
तब तुम्हारी माँ अपने परिश्रम का फल देख गद्गद हो जाएगी।’’
‘‘मान लीजिये कि मैं संस्कृत में एम० ए० पास कर लूँ तो क्या काम कर सकूँगा?’’
‘‘तुम कहीं प्रोफेसर लग जाओगे। यदि गवर्नमेंट कॉलेज में लग गये तो डेढ़ सौ रुपया मिल जायेगा।’’
फकीरचन्द ने अधिक विवाद में न पड़ने के लिए कह दिया, ‘‘विचार करूँगा।’’ परन्तु वह मन में विचार करता था कि यदि वह प्रोफेसर बन भी गया तो कैसे अपने परिश्रम को कई गुणा अधिक कर सकेगा। उसको डी० ए० वी० कॉलेज के प्रोफेसरों का पता था कि दस-दस वर्ष में पढ़ा रहे थे और डेढ़-दो सौ तक ही वेतन पाते थे।
इस प्रकार विचार करते हुए वह किसी निश्चय पर पहुँच नहीं सका। मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में वह फर्स्ट डिवीजन में ऊँचे अंक लेकर पास तो हुआ, परन्तु उसको वजीफा नहीं मिल सका। अतः उसके लिए कॉलेज की पढ़ाई में रस भी उत्पन्न नहीं हो सका।
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