उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
परीक्षा के परिणाम के घोषित होने पर माँ ने पूछा, ‘‘फकीर ! अब आगे पढ़ोंगे?’’
‘‘माँ ! तुमको काम कर घर का खर्चा चलाते देख मुझे बहुत दुःख होता है। मैं कोई ऐसा मार्ग ढूँढ़ना चाहता हूं, जिससे तुमको जल्दी-से-जल्दी इस मेहनत-मुशक्कत से छुट्टी दिला सकूँ। नित्य रोटी खाते, कपड़े पहिनते और अपने अन्य खर्च चलाते समय मुझको कुछ ऐसा अनुभव होता है कि मैं तुम्हारा खून पी रहा हूँ। इससे मुझे अपने पर ग्लानि होने लगी है। मैं ईमानदारी से धनोपार्जन का कोई उपाय ढूँढ़ रहा हूँ।’’
‘‘जैसा समझ में आये करो, परन्तु एक बात का स्मरण रखना कि मैं तुमकों वैसा ही निर्धन देखना नहीं चाहती जैसे तुम्हारे पिता थे। मैं समझती हूँ कि मेरी वर्तमान मुसीबत निर्धनता के कारण ही है। साथ ही तुम्हारे पिता ने बेईमानी से पैदा करने की अपेक्षा स्वयं बीमार हो मर जाना उचित समझा और मैं भी उनको राय नहीं दे सकी कि वे बेईमानी करें। तुम भी स्मरण रखना कि इतनी मुसीबत झेलने पर भी मैं तुमको बेईमानी से धन कमाने के लिए कभी नहीं कहूँगी। यदि तुमने ऐसा कुछ भी किया तो मैं अपना जीवन व्यर्थ समझ इस संसार को छोड़ जाऊँगी। धर्म ही तो मेरी इस घोर तपस्या का फल है और मैं उसको किसी भी मूल्य पर खोना नहीं चाहती।’’
फकीरचन्द के लिए यह एक अति विकट समस्या थी। वह जानता था कि यदि कॉलेज में भर्ती हो गया तो माँ को अभी छः वर्ष और घोर तपस्या करनी पड़ेगी। यदि वह इस समय नौकरी के लिए यत्न करे तो भी जीवन की समस्या सुलझेगी नहीं। इस कारण उसको कुछ काम सीखना चाहिए, जिसके फल को वह पूँजी की सहायता से विचार कर वह ऐसे काम की खोज करने लगा, जिसको सीख वह उन्नति कर सके। इसके साथ ही पूँजी की खोज भी करने लगा। उसने माँ से पूछा तो पता चला कि वह दस वर्ष का कठोर परिश्रम करने पर केवल पाँच सो रुपये बचा सकी है। वह विचार करता था कि इतनी-सी पूँजी से क्या कर सकेगा?
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