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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘तुम प्याज, माँस, अण्डे खाते हो। मुझसे उन बरतनों में खाया ही न जायेगा।’

‘आप यह सब कुछ न खाइयेगा; मगर मेरे साथ बैठना पड़ेगा। मैं रोज साबुन लगाकर नहाता हूँ।’

‘बरतनों को ख़ूब साफ़ कर लेना।’

‘आपका खाना हिन्दू बनायेगा साहब। बस, एक मेज़ पर बैठकर खा लेना।’

‘अच्छा, खा लूँगा भाई। मैं दूध और घी खूब खाता हूँ।’

सेठजी तो सन्ध्योपासन करने बैठे, फिर पाठ करने लगे। इधर सलीम के साथ के एक हिन्दू कांसटेबल ने पूरी, कचौरी, हलवा, खीर पकाई। दही पहले से ही रखा हुआ था। सलीम खुद आज ही भोजन करेगा। सेठजी सन्ध्या करके लौटे, तो देखा दो कम्बल बिछे हुए हैं और थालियाँ रखी हुई हैं।

सेठजी ने ख़ुश होकर कहा–‘यह तुमने बहुत अच्छा इन्तज़ाम किया।’

सलीम ने हँसकर कहा–‘मैंने सोचा, आपको धर्म क्यों लूँ, नहीं एक ही कम्बल रखता।’

‘अगर यह ख़याल हो, तो तुम मेरे कम्बल पर आ जाओ। नहीं, मैं ही आता हूँ।’

वह थाली उठाकर सलीम के कम्बल पर आ बैठे। अपने विचार में आज उन्होंने अपने जीवन का सबसे महान् त्याग किया। सारी सम्पत्ति दान देकर भी उनका हृदय इतना गौरवान्वित न होता।

सलीम ने चुटकी ली–‘अब तो आप मुसलमान हो गये।

सेठजी बोले–‘मैं मुसलमान नहीं हुआ। तुम हिन्दू हो गये।’

प्रातःकाल समरकान्त और सलीम डाकबँगले से गाँव की ओर चले। पहाड़ियों से नीली भाप उठ रही थी और प्रकाश का हृदय जैसी किसी अव्यक्त वेदना से भारी हो रहा था। चारों ओर सन्नाटा था। पृथ्वी किसी रोगी की भाँति कोहरे के नीचे पड़ी सिहर रही थी। कुछ बन्दरों की भाँति छप्पर पर बैठे उसकी मरम्मत कर रहे थे और कहीं-कहीं स्त्रियाँ गोबर थाप रही थीं। दोनों आदमी पहले सलोनी के घर गये।

सलोनी को ज्वर चढ़ा हुआ था और सारी देह फोड़े की भाँति दुख रही थी, मगर उसे गाने की धुन सवार थी–

सन्तो देखत जग बौराना।
साँच कहो तो मारन धावे, झूठ जगत पतियाना, सन्तो देखत...

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