उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मनोव्यथा जब असह्य और अपार हो जाती है, जब उसे कहीं त्राण नहीं मिलता; जब वह रुदन और क्रन्दन की गोद में भी आश्रय नहीं पाती, तो वह संगीत के चरणों पर जा गिरती है।
समरकान्त ने पुकारा–‘भाभी, ज़रा बाहर तो आओ।’
सलोनी चटपट उठकर पके बालों को घूँघट से छिपाती, नवयौवना की भाँति लजाती आकर खड़ी हो गयी और पूछा–‘तुम कहाँ चले गये थे, देवरजी?’
सहसा सलीम को देखकर वह एक पग पीछे हट गयी और जैसे गाली दी–‘यह तो हाकिम है!’
फिर सिंहनी की भाँति झपटकर उसने सलीम को ऐसा धक्का दिया कि वह गिरते-गिरते बचा, और जब तक समरकान्त उसे हटायें-हटायें, सलीम की गरदन पकड़कर इस तरह दबाई, मानो गला घोंट देगी।
सेठजी ने उसे बलपूर्वक हटाकर कहा–‘पगला गयी है क्या भाभी? अलग हट जा, सुनती नहीं?’
सलोनी ने फटी-फटी प्रज्वलित आँखों से सलीम को घूरते हुए कहा–‘मार तो दिखा दूँ, आज मेरा सरदार आ गया है! सिर कुचलकर रख देगा!’
समरकान्त ने तिरस्कार-भरे स्वर में कहा–‘सरदार के मुँह में कालिख लगा रही हो और क्या! बूढ़ी हो गयी, मरने के दिन आ गये और अभी लड़कपन नहीं गया। यही तुम्हारा धर्म है कि कोई हाकिम द्वार पर आये, तो उसका अपमान करो।’
सलोनी ने मन में कहा–यह लाला भी ठकुरसुहाती करते हैं। लड़का पकड़ गया है न, इसी से। फिर दुराग्रह से बोली–‘पूछो इसने सबको पीटा नहीं था?’
सेठजी बिगड़कर बोले–‘तुम हाकिम होती और गाँव वाले तुम्हें देखते ही लाठियाँ ले-लेकर निकल आते, तो तुम क्या करतीं? जब प्रजा लड़ने पर तैयार हो जाय, तो हाकिम क्या उसकी पूजा करे! अमर होता तो वह लाठी लेकर न दौड़ता? गाँव वालों को लाजिम था कि हाकिम के पास आकर अपना-अपना हाल कहते, अरज–बिनती करते, अदब से, नम्रता से। यह नहीं कि हाकिम को देखा और मारने दौड़े, मानो वह तुम्हारा दुश्मन है। मैं इन्हें समझा-बुझाकर लाया था कि मेल करा दूँ, दिलों की सफ़ाई हो जाय, और तुम उनसे लड़ने पर तैयार हो गयी।’
यहाँ कि हलचल सुनकर गाँव के और कई आदमी जमा हो गये; पर किसी ने सलीम को सलाम नहीं किया। सबकी त्योरियाँ चढ़ी हुई थीं।
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