लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


समरकान्त ने उन्हें सम्बोधित किया–‘तुम्हीं लोग सोचो। यह साहब तुम्हारे हाकिम हैं। जब रिआया हाकिम के साथ गुस्ताखी करती है, तो हाकिम को भी क्रोध आ जाय तो कोई ताज्जुब की बात नहीं। यह बिचारे तो अपने को हाकिम समझते ही नहीं। लेकिन इज़्ज़त तो सभी चाहते हैं, हाकिम हों या न हों। कोई आदमी अपनी बेइज़्ज़ती नहीं देख सकता। बोलो गूदड़ मैं कुछ ग़लत कहता हूँ।’

गूदड़ ने सिर झुकाककर कहा–‘नहीं मालिक, सच कहते हो। मुदा वह तो बावली है। उसकी किसी बात का बुरा न मानो। सबके मुँह में कालिख लगा रही है और क्या!’

‘यह हमारे लड़के के बराबर हैं। अमर के साथ पढ़े उन्हीं के साथ खेले। तुमने अपनी आँखों से देखा कि अमर को गिरफ़्तार करने यह अकेले आये थे। क्या समझकर? क्या पुलिस को भेजकर न पकड़वा सकते थे? सिपाही हुक्म पाते ही आते और धक्के देकर बाँध ले जाते। इनकी शराफ़त थी कि ख़ुद आये और किसी पुलिस को साथ न लाए। अमर ने भी सही किया, जो उसका धर्म था। अकेले आदमी को बेइज़्ज़त करना चाहते, तो क्या मुश्किल था? अब तक जो कुछ हुआ, उसका इन्हें रंज है, हालाँकि कसूर तुम लोगों का भी था। अब तुम भी पिछली बातों को भूल जाओ। इनकी तरफ़ से अब किसी तरह की सख़्ती न होगी। इन्हें अगर तुम्हारी जायदाद नीलाम करने का हुक्म मिलेगा, नीलाम करेंगे, गिरफ़्तार करने का हुक्म मिलेगा, गिरफ़्तार करेंगे, तुम्हें बुरा न लगना चाहिए। तुम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हो। लड़ाई नहीं, यह तपस्या है। तपस्या में क्रोध और द्वेष आ जाता है, तो तपस्या भंग हो जाती है।’

स्वामीजी बोले–‘धर्म की रक्षा एक ओर से नहीं होती! सरकार नीति बनाती है। उसे नीति की रक्षा करनी चाहिए। जब उसके कर्मचारी नीति पैरों से कुचलते हैं, तो फिर जनता कैसे नीति की रक्षा कर सकती है?’

समरकान्त ने फटकार बताई–‘आप संन्यासी होकर ऐसा कहते हैं, स्वामीजी! आपको अपनी नीतिपरता से अपने शासकों को नीति पर लाना है। यदि वह नीति पर ही होते, तो आपको यह तपस्या क्यों करनी पड़ती? आप अनीति पर अनीति से नहीं, नीति से विजय पा सकते हैं।’

स्वामीजी का मुँह जरा-सा निकल आया। ज़बान बन्द हो गयी।

सलोनी का पीड़ित हृदय पक्षी के समान पिंजले से निकलकर भी कोई आश्रय खोज रहा था। सज्जनता और सत्प्रेरणा से भरा हुआ यह तिरस्कार उसके सामने जैसे दाने बिखेरने लगा। पक्षी ने दो-चार बार गरदन झुकाककर दोनों को सतर्क नेत्रों से देखा, फिर अपने रक्षक को ‘आ,आ’ करते सुना और पर फैलाकर दानों पर उतर आया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book