उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सलोनी आँखों में आँसू भरे, दोनों हाथ जोड़े, सलीम के सामने आकर बोली–‘सरकार, मुझसे बड़ी खता हो गयी। माफ़ी दीजिए। मुझे जूतों से पीटिए...’
सेठजी ने कहा–‘सरकार नहीं, बेटा कहो।’
‘बेटा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मूरख हूँ। बावली हूँ। जो सजा चाहे दो।’
सलीम के युवा नेत्र भी सजल हो गये। हुकूमत का रोब और अधिकार का गर्व भूल गया। बोला–‘माताजी, मुझे शर्मिन्दा न करो। यहाँ जितने लोग खड़े हैं, मैं उन सबसे और जो यहाँ नहीं, उनसे भी अपनी ख़ताओ की मुआफ़ी चाहता हूँ।’
गूदड़ न कहा–‘हम तुम्हारे ग़ुलाम हैं भैया; लेकिन मूरख जो ठहरे, आदमी पहचानते तो क्यों इतनी बातें होतीं?’
स्वामीजी ने समरकान्त के कान में कहा–‘मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि दग़ा करेगा।’
सेठजी ने आश्वासन दिया–‘कभी नहीं। नौकरी चाहे चली जाय; पर तुम्हें सतायेगा नहीं, शरीफ़ आदमी है।’
‘तो क्या हमें पूरा लगान देना पड़ेगा?’
‘जब कुछ है ही नहीं तो दोगे कहाँ से?’
स्वामीजी हटे तो सलीम ने आकर सेठजी के कान में कुछ कहा।
सेठजी मुस्कराकर बोले–‘यह साहब तुम लोगों को दवा-दारू के लिए सौ रुपये भेंट कर रहे हैं। मैं अपनी ओर से उसमें नौ सौ रुपये मिलाये देता हूँ। स्वामीजी डाकबँगले पर चलकर मुझसे रुपये ले लो।’
गूदड़ ने कृतज्ञता को दबाते हुए कहा–‘भैया...’ पर मुख से एक शब्द भी न निकला।
समरकान्त बोले–‘यह मत समझो कि यह मेरे रुपये हैं। मैं अपने बाप के घर से नहीं लाया। तुम्हीं से, तुम्हारा ही गला दबाकर लिए थे। वह तुम्हें लौटा रहा हूँ।’
गाँव में जहाँ सियापा छाया हुआ था, वहाँ रौनक़ आने लगी। जैसे कोई संगीत वायु में घुल गया हो।
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