लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…

अमरकान्त को जेल में रोज़-रोज़ का समाचार किसी-न-किसी तरह मिल जाता था। जिस दिन मारपीट और अग्निकाण्ड की ख़बर मिली, उसके क्रोध का वारावार न रहा और जैसे आग बुझकर राख हो जाती है, थोड़ी देर के बाद क्रोध की जगह केवल नैराश्य रह गया। लोगों के रोने-पीटने की दर्द-भरी हाय-हाय जैसे मूर्तिमान होकर उसके सामने सिर पीट रही थी। जलते हुए घरों की लपटें जैसे उसे झुलसा डालती थीं। वह सारा भीषण दृश्य कल्पनातीत होकर सर्वनाश के समीप जा पहुँचा था और इसकी ज़िम्मेदारी किस पर थी? रुपये तो यों भी वसूल किये जाते; पर इतना अत्याचार तो न होता, कुछ रिआयत तो की जाती। सरकार इस विद्रोह के बाद किसी तरह की नर्मी का बर्ताव न कर सकती थी, लेकिन रुपया न दे सकना तो किसी मनुष्य का दोष नहीं! यह मन्दी की बला कहाँ से आयी, कौन जाने? यह तो ऐसा ही है कि आँधी में किसी का छप्पर उड़ जाय और सरकार उसे दण्ड दे। यह शासन किसके हित के लिए है? इसका उद्देश्य क्या है?

इन विचारों से तंग आकर उसने नैराश्य में मुँह छिपाया। अत्याचार हो रहा है। होने दो। मैं क्या करूँ? कर ही क्या सकता हूँ! मैं कौन हूँ। मुझसे मतलब? कमज़ोरों के भाग्य में जब मार खाना लिखा है, मार खाएँगे। मैं ही यहाँ क्या फूलों की सेज पर सोया हुआ हूँ अगर संसार के सारे प्राणी पशु हो जायें, तो मैं क्या करूँ? जो कुछ होगा, होगा। यह भी ईश्वर की लीला है! वाह रे तेरी लीला! अगर ऐसी ही लीलाओं में तुम्हें आनन्द आता है, तो तुम दयामय क्यों बनते हो? ज़बरदस्त का ठेंगा सिर पर, क्या यह भी ईश्वरीय नियम है?

जब सामने कोई विकट समस्या आ जाती थी, तो उसकी मन नास्तिकता की ओर झुक जाता था। सारा विश्व श्रृंखला-हीन, अव्यवस्थित, रहस्यमय जान पड़ता था।

उसने बान बटना शुरू किया; लेकिन आँखों के सामने एक दूसरा ही अभिनय हो रहा था–वही सलोनी है, सिर के बाल खुले हुए, अर्धनग्न। मार पड़ रही है। उसके रुदन की करुणाजनक ध्वनि कानों में आने लगी। फिर मुन्नी की मूर्ति सामने आ खड़ी हुई। उसे सिपाहियों ने ग़िरफ़्तार कर लिया और खींचे लिये जा रहे हैं। उनके मुँह से अनायास ही निकल गया–‘हाँय,-हाँय, यह क्या करते हो? ‘ फिर वह सचेत हो गया और बान बटने लगा।

रात को भी यह दृश्य आँखों में फिरा करते,वही क्रन्दन कानों में गूँजा करता। इस सारी विपत्ति का भार अपने सिर पर लेकर वह दबा जा रहा था। इस भार को हलका करने के लिए उसके पास कोई साधन न था। ईश्वर का बहिष्कार करके उसने मानो नौका का परित्याग कर दिया था और अथाह जल में डूबा जा रहा था। कर्म–जिज्ञासा उसे किसी तिनके का सहारा न लेने देती थी। वह किधर जा रहा है और अपने साथ लाखों निस्सहाय प्राणियों को किधर लिए जा रहा है? इसका क्या अन्त होगा? इस काली घटा में कहीं चाँदी की झालर है। वह चाहता था, कहीं से आवाज आये–बढ़े आओ! बढ़े आओ! यही सीधा रास्ता है; पर चारों तरफ़ निविड़, सघन अन्धकार था। कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती, कहीं प्रकाश नहीं मिलता। जब वह स्वयं अन्धकार में पड़ा हुआ है, स्वयं नहीं जानता आगे स्वर्ग की शीतल छाया है, या विध्वंश की भीषण ज्वाला, तो उसे क्या अधिकार है कि इतने प्राणियों की जान आफ़त में डाले। इसी मानसिक पराभाव की दशा में उसके अन्तःकरण से निकला-‘ईश्वर मुझे प्रकाश दो, मुझे उबारो। और वह रोने लगा।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book