उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सुबह का वक़्त था, क़ैदियों की हाज़िरी हो गयी थी। अमर का मन कुछ शान्त था। वह प्रचण्ड आवेग शान्त हो गया था और आकाश में छायी हुई गर्द बैठ गयी थी। चीज़ें साफ़-साफ़ दिखाई देने लगी थीं। अमर मन में पिछली घटनाओं की आलोचना कर रहा था। कारण और कार्य के सूत्रों को मिलाने की चेष्टा करते हुए सहसा उसे एक ठोकर-सी –लगी–नैना का वह पत्र और सुखदा की गिरफ़्तारी। इसी से तो वह आवेश में आ गया था और समझौते का सुसाध्य मार्ग छोड़कर उस दुर्गम पथ की ओर झुक पड़ा था। इस ठोकर ने जैसे उसकी आँखें खोल दीं। मालूम हुआ, यश-लालशा का, व्यक्तिगत स्पर्धा का, सेवा के आवरण में छिपे हुए अहंकार का खेल था। इस अविचार और आवेश का परिणाम इसके सिवा और क्या होता?
अमर के समीप एक क़ैदी बैठा बान बट रहा था। अमर ने पूछा–‘तुम कैसे आये भाई?’
उसने कुतूहल से देखकर कहा–‘पहले तुम बताओ।’
‘मुझे तो नाम की धुन थी।’
‘मुझे धन की धुन थी!’
उसी वक़्त जेलर ने आकर अमर से कहा–‘तुम्हारा तबादला लखनऊ हो गया है। तुम्हारे बाप आये थे। तुमसे मिलना चाहते थे। तुम्हारी मुलाक़ात की तारीख न थी। साहब ने इन्कार कर दिया।’
अमर ने आश्चर्य से पूछा–‘मेरे पिताजी यहाँ आये थे?’
‘हां-हाँ, इसमें ताज्जुब की क्या बात है? मि. सलीम भी उनके साथ थे।’
‘इलाके की कुछ नयी ख़बर?’
‘तुम्हारे बाप ने शायद सलीम साहब को समझाकर गाँववालों से मेल करा दिया है। शरीफ़ आदमी हैं। गाँववालों के इलाज़ वग़ैरह के लिए एक हज़ार रुपये दे दिये।’
अमर मुस्कराया।
‘उन्हीं की कोशिश से तुम्हारा तबादला हो रहा है।
लखनऊ में तुम्हारी बीबी भी आ गयी है। शायद उन्हें छः महीने की सज़ा हुई है।’
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