उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमर खड़ा हो गया–‘सुखदा भी लखनऊ में है?’
‘और तुम्हारा तबादला क्यों हो रहा है!’
अमर को अपने मन में विलक्षण शान्ति का अनुभव हुआ। वह निराशा कहाँ गयी? दुर्बलता कहाँ गयी?
वह फिर बैठकर बान बटने लगा। उसके हाथों में आज ग़जब की फुरती है। ऐसी कायापलट! ऐसा मंगलमय परिवर्तन! क्या अब ईश्वर की दया में कोई सन्देह हो सकता है? उसने काँटे बोये थे, वे वह वह सब फूल हो गये!
सुखदा आज जेल में है। जो भोग–विलास पर आसक्त थी, वह आज दीनों की सेवा में अपना जीवन सार्थक कर रही है। पिताजी, जो पैसों को दाँत से पकड़ते थे, वह आज परोपकार में रत हैं। कोई दैवी शक्ति नहीं है तो यह सब कुछ किसकी प्रेरणा से हो रहा है!
उसने मन की सम्पूर्ण श्रद्धा से ईश्वर के चरणों में वन्दना की। वह भार, जिसके बोझ से यह दबा जा रहा था, उसके सिर से उतर रहा था। जिसकी देह हलकी थी, मन हलका था और आगे आने वाली ऊपर की चढ़ाई, मानो उसका स्वागत कर रही थी।
६
अमरकान्त को लखनऊ में आये आज तीसरा दिन है। जहाँ उसे चक्की का काम दिया गया है। जेल के अधिकारियों को मालूम है, वह धनी का पुत्र है, इसलिए उसे कठिन परिश्रम देकर भी उसके साथ कुछ रिआयत की जाती है।
एक छप्पर के नीचे चक्कियों की क़तारें लगी हुई हैं। दो-दो क़ैदी हरेक चक्की के पास खड़े आटा पीस रहे हैं। शाम को आटे की तौल होगी। आटा कम निकला, तो दण्ड मिलेगा।
अमर ने अपने संगी से कहा–‘ज़रा ठहर जाओ भाई, दम ले लूँ, मेरे हाथ नहीं चलते। क्या नाम है तुम्हारा? मैंने तो शायद तुम्हें कहीं देखा है।’
संगी गठीला, काला, लाल आँखों वाला, कठोर आकृति का मनुष्य था, जो परिश्रम से थकना न जानता था। मुस्कराकर बोला–‘मैं वही काले खाँ हूँ, जो एक बार तुम्हारे पास सोने के कड़े बेचने गया था। याद करो। लेकिन तुम यहाँ कैसे आ फँसे, मुझे यह ताज्जुब हो रहा है। परसों से ही पूछना चाहता था पर सोचता था, कहीं धोखा न हो रहा हो।’
अमर ने अपनी कथा संक्षेप में सुनाई और कहा–‘तुम कैसे आये?’
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