उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
काले खाँ हँसकर बोला–‘मेरी क्या पूछते हो लाला, यहाँ तो छः महीने बाहर रहते हैं तो छः साल भीतर। अब तो यही आरजू है कि अल्लाह यहीं से बुला लें। मेरे लिए बाहर रहना मुसीबत है। सबको अच्छा-अच्छा पहनते, अच्छा-अच्छा खाते देखता हूँ, तो हसद होता है, पर मिले कहाँ से? कोई हुनर आती नहीं, इलम है नहीं। चोरी न करूँ, डाका न मारूँ, तो खाऊँ क्या? यहाँ किसी से हद नहीं होता, न किसी को अच्छा पहनते देखता हूँ, न अच्छा खाते। अब अपने ही जैसे हैं, फिर डाह और जलन क्यों हो? इसीलिए अल्लाहताला से दुआ करता हूँ कि यहीं से बुला ले। छुटने की आरजू नहीं है। तुम्हारे हाथ दुख गये हों, तो रहने दो। मैं अकेला ही पीस डालूँगा। तुम्हें इन लोगों ने यहाँ काम दिया ही क्यों? तुम्हारे भाई-बन्द तो हम लोगों से अलग, आराम से रखे जाते हैं। तुम्हें यहाँ क्यों डाल दिया? हट जाओ।’
अमर ने चक्की की मुठिया ज़ोर से पकड़कर कहा– ‘नहीं-नहीं, मैं थका नहीं हूँ। दो-चार दिन में आदत पड़ जायेगी, तो तुम्हारे बराबर काम करूँगा।’
काले खाँ ने उसे पीछे हटाते हुए कहा–‘मगर यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम मेरे साथ चक्की पीसो। तुमने कोई ज़ुर्म नहीं किया है। रिआया के पीछे सरकार से लड़े हो, तुम्हें तो मैं न पीसने दूँगा। मालूम होता है तुम्हारे लिए ही अल्लाह ने मुझे यहां भेजा है। वह तो बड़ा कारसाज़ आदमी है। उसकी कुदरत कुछ समझ में नहीं आती। आप ही आदमी से बुराई करवाता है, आप ही उसे सज़ा देता है, और आप ही उसे मुआफ़ कर देता है।’
अमर ने आपत्ति की–‘बुराई ख़ुद नहीं कराता, हम ख़ुद करते हैं।’
काले खाँ ने ऐसी निगाहों से उसकी ओर देखा, जो कह रही थीं, तुम इस रहस्य को अभी नहीं समझ सकते– ‘ना, ना मैं यह नहीं मानूँगा। तुमने तो पढ़ा होगा, उसके हुक्म के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, बुराई कौन करेगा? सब कुछ वही करवाता है, और फिर माफ़ भी कर देता है। यह मैं मुँह से कह रहा हूँ। जिस दिन से मेरे ईमान में वह बात जम जायेगी, उसी दिन बुराई बन्द हो जायेगी। तुम्हीं ने उस दिन मुझे वह नसीहत सिखाई थी। मैं तुम्हें अपना पीर समझता हूँ। दो सौ की चीज़ तुमने तीस रुपये में न ली। उसी दिन मुझे मालूम हुआ, बदी क्या चीज़ है। अब सोचता हूँ, अल्लाह को कौन मुँह दिखाऊँगा जिन्दगी में इतने गुनाह किये हैं कि अब उनकी याद आती है, तो रोएँ खड़े हो जाते हैं। अब तो उसी की रहीमी का भरोसा है। क्यों भैया, तुम्हारे मजहब में क्या लिखा है? अल्लाह गुनहगारों को मुआफ़ कर देता है?’
काले खाँ की कठोर मुद्रा इस गहरी, सजीव, सरल भक्ति से प्रदीप्त हो उठी, आँखें में कोमल छटा उदय हो गयी। और वाणी इतनी मर्मस्पर्शी, इतनी आर्द्र थी कि अमर का हृदय पुलकित हो उठा–‘सुनता तो हूँ खाँ साहब, कि वह बड़ा दयालु है।’
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