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उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


काले खाँ दूने वेग से चक्की घुमाता हुआ बोला–‘बड़ा दयालु है भैया। माँ के पेट में बच्चे को भोजन पहुँचाता है। यह दुनिया की उसकी रहीमी का आईना है। जिधर आँखें उठाओ, उसकी रहीमी के जलवे। इतने ख़ूनी डाकू यहाँ पड़े हुए हैं, उनके लिए भी आराम का सामान कर दिया। मौक़ा देता है, बार-बार मौक़ा देता है कि अब भी सँभल जावें। उसका गुस्सा कौन सहेगा भैया? जिस दिन उसे गुस्सा आवेगा, यह दुनिया जहन्नुम को चली जायेगी। हमारे-तुम्हारे ऊपर क्या गुस्सा करेगा? हम चींटी को पैरों तले पड़ते देखकर किनारे से निकल जाते हैं। उसे कुचलते रहम आता है। जिस अल्लाह ने हमको बनाया, जो हमको पालता है, वह हमारे ऊपर कभी गुस्सा कर सकता है? कभी नहीं।’

अमर को अपने अन्दर आस्था की एक लहर–सी उठती हुई जान पड़ी। इतने अटल विश्वास और सरल श्रद्धा के साथ इस विषय पर उसने किसी को बातें करते न सुना था। बात वही थी, जो वह नित्य छोटे–बड़े के मुँह से सुना करता था; पर निष्ठा ने उन शब्दों में जान-सी डाल दी थी।

ज़रा देर के बाद वह फिर बोला–‘भैया, तुमसे चक्की चलवाना तो ऐसा ही है, जैसे कोई तलवार से चिड़िया को हलाल करे। तुम्हें अस्पताल में रखना चाहिए था, बीमारी में दवा से उतना फ़ायदा नहीं होता, जितनी मीठी बात से हो जाता है। मेरे सामने यहाँ कई क़ैदी बीमार हुए; पर एक भी अच्छा न हुआ। बात क्या है? दवा क़ैदी के सिर पर पटक दी जाती है; वह चाहे पिये, चाहे फेंक दे।’

अमर को उस काली-कलूटी काया में स्वर्ण-जैसा हृदय चमकता दीख पड़ा। मुस्कराकर बोला–‘लेकिन दोनों साथ-साथ कैसे करूँगा?’

‘मैं अकेला चक्की चला लूँगा और पूरा आटा तुलवा दूँगा।’

‘तब तो सारा सवाब तुम्हीं को मिलेगा।’

काले खाँ ने साधु-भाव से कहा–‘भैया, कोई काम सवाब समझकर नहीं करना चाहिए। दिल को ऐसा बना लो कि सवाब में उसे वही मज़ा आवे, जो गाने या खेलने में आता है। कोई काम इसलिए करना कि उससे नजात मिलेगी, रोज़गार है; फिर मैं तुम्हें क्या समझाऊँ! तुम ख़ुद इन बातों को मुझसे ज़्यादा समझते हो। मैं तो मरीज़ की तीमारदारी करने के लायक़ नहीं हूँ। मुझे बड़ी जल्दी गुस्सा आ जाता है। कितना चाहता हूँ कि गुस्सा न आये; पर जहाँ किसी ने दो-एक बार मेरी बात न मानी और मैं बिगड़ा।’

वही डाकू, जिसे अमर ने एक दिन अधमता के पैरों के नीचे लोटते देखा था, आज देवत्व के पद पर पहुँच गया था। उसकी आत्मा से मानो एक प्रकाश-सा निकलकर अमर के अन्तःकरण को आलोकित करने लगा।

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