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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


जेलर ने समीप जाकर अपनी छड़ी पीठ में चुभाते हुए कहा–‘बहरा हो गया है क्या बे? शामतें तो नहीं आयी हैं?’

काले खाँ नमाज़ पढ़ने में मग्न था। पीछे फिरकर भी न देखा।

जेलर ने झल्लाकर लात जमाई। काले खाँ सिजदे के लिए झुका हुआ था। लात खाकर औंधे मुँह गिर पड़ा; तुरन्त सँभलकर फिर सिजदे में झुक गया। जेलर को अब जिद पड़ गयी कि उसकी नमाज़ बन्द कर दे। सम्भव है काले खाँ को भी जिद पड़ गयी हो कि नमाज़ पूरी किये बग़ैर न उठूँगा। वह तो सिजदे में था। जेलर ने उसे बूटदार ठोकरें जमानी शुरू कीं। एक वार्डर ने लपककर दो गारद के सिपाही बुला लिये। दूसरा जेलर साहब की कुमक पर दौड़ा। काले खाँ पर एक तरफ़ से ठोकरें पड़ रही थीं, दूसरी तरफ़ से लकड़ियाँ; पर वह सिजदे से सिर न उठाता था। हाँ, प्रत्येक आघात पर उसके मुँह से ‘अल्लाहो अकबर!’ की दिल हिला देने वाली सदा निकल जाती थी। उधर आघातियों की उत्तेजना भी बढ़ती जाती थी। जेल का क़ैदी जेल के खुदा को सिजदा न करके अपने ख़ुदा को सिजदा करे, इससे बड़ा जेलर साहब का क्या अपमान हो सकता था? यहाँ तक कि काले खाँ के सिर से रुधिर बहने लगा। अमरकान्त उसकी रक्षा करने के लिए चला था कि एक वार्डर ने उसे मजबूती से पकड़ लिया। उधर बराबर आघात हो रहे थे और काले खाँ बराबर अल्लाहो अकबर!’ की सदा लगाए जाता था। आख़िर वह आवाज़ क्षीण होते-होते एक बार बिलकुल बन्द हो गयी और काले खाँ रक्त बहने से शिथिल हो गया। मगर चाहे किसी के कानों में आवाज़ न जाती हो, उसके ओठ भी खु़ल रहे थे और अब भी ‘अल्लाहो अकबर’ की अव्यक्त ध्वनि निकल रही थी।

जेलर ने खिसियाकर कहा–‘पड़ा रहने दो बदमाश को यहीं! कल से इस खड़ी बेड़ी दूँगा और तनहाई भी। अगर तब भी सीधा न हुआ, तो उलटी होगी। इसकी नमाज़ीपन निकाल दूँ, तो नाम नहीं!’

एक मिनट में वार्डर, जेलर, सिपाही सब चले गये। क़ैदियों के भोजन का समय आया, सब-के-सब भोजन पर जा बैठे। मगर काले खाँ अभी वहीं औंधा पड़ा था। सिर और नाक तथा कानों से ख़ून बह रहा था। अमरकान्त बैठा उसके घावों को पानी से धो रहा था और ख़ून बन्द करने का प्रयास कर रहा था। आत्मशक्ति के इस कल्पनातीत उदाहरण ने उसकी भौतिक बुद्धि को आक्रान्त कर दिया। ऐसी परिस्थिति में क्या वह इस भाँति निश्चल और संयमित बैठा रहता? शायद पहले ही आघात में उसने या तो प्रतिकार किया होता या नमाज़ छोड़कर अलग हो आता। विज्ञान और नीति और देशानुराग की वेदी पर वलिदानों की कमी नहीं। पर यह निश्चल धैर्य ईश्वर–निष्ठा ही का प्रसाद है।

क़ैदी भोजन करके लौटे। काले खाँ अब भी वहाँ पड़ा हुआ था। सभों ने उसे उठाकर बैरक में पहुँचाया और डाक्टर को सूचना दी; पर उन्होंने रात को कष्ट उठाने की ज़रूरत न समझी। वहाँ और कोई दवा न थी। गर्म पानी तक न मयस्सर हो सका।

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