उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
उस बैरक के क़ैदियों ने सारी रात बैठकर काटी। कई आदमी अमादा थे कि सुबह होते ही जेलर साहब की मरम्मत की जाय। यही न होगा, साल-साल भर की मीयाद और बढ़ जायेगी क्या परवाह! अमरकान्त शान्त प्रकृति का आदमी था; पर इस समय वह भी उन्हीं लोगों में मिला हुआ था। रात भर उसके अन्दर पशु और मनुष्य में द्वन्द्व होता रहा। वह जानता था, आग आग से नहीं, पानी से शान्त होती है। इन्सान कितना ही हैवान हो जाय, उसमें कुछ-न-कुछ आदमीयत रहती है। वह आदमीयत अगर जाग सकती है, तो ग्लानि से, या पश्चाताप से। अमर अकेला होता, तो वह अब भी विचलित न होता; लेकिन सामूहिक आवेश ने उसे भी अस्थिर कर दिया। समूह के साथ हम कितने ही ऐसे अच्छे या बुरे काम कर जाते हैं, जो हम अकेले न कर सकते। और काले खाँ की दशा जितनी ख़राब होती जाती थी, उतनी ही प्रतिशोध की ज्वाला भी प्रचण्ड होती जाती थी।
एक डाके के क़ैदी ने कहा–‘ख़ून पी जाऊँगा, ख़ून! उसने समझा क्या है! यही न होगा, फाँसी हो जायेगी।’
अमरकान्त बोला–‘उस वक़्त क्या समझते थे कि मारे ही डालता है।’
चुपके-चुपके षड्यन्त्र रचा गया, आघातकारियों का चुनाव हुआ, उनका कार्यविधान निश्चय किया गया। सफ़ाई की दलीलें सोच निकाली गयीं।
सहसा एक ठिगने क़ैदी ने कहा–‘तुम लोग समझते हो, सवेरे तक उसे ख़बर न हो जायेगी।’
अमर ने पूछा–‘ख़बर कैसे होगी? यहाँ ऐसा कौन है, जो उसे ख़बर दे दे?’
ठिगने क़ैदी ने दायें-बायें आँखें घुमाकर कहा–‘ख़बर देने वाले न जाने कहाँ से निकल आते हैं भैया? किसी के माथे पर तो कुछ लिखा नहीं, कौन जाने हमीं में से कोई जाकर इत्तला कर दे। रोज़ ही तो लोगों को मुख़बिर बनते देखते हो। वही लोग जो अगुआ होते हैं, अवसर पड़ने पर सरकारी गवाह बन जाते हैं। अगर कुछ करना है, तो अभी कर डालो, दिन को वारदात करोगे, सब-के-सब पकड़ लिए जाओगे। पाँच-पाँच साल की सज़ा ठुक जायेगी।’
अमर ने सन्देह के स्वर में पूछा–‘लेकिन इस वक़्त तो वह अपने क्वार्टर में सो रहा होगा?’
ठिगने क़ैदी ने राह बताई–‘यह हमारा काम है भैया, तुम क्या जानो?’
सबों ने मुँह मोड़कर कनफुसियों में बातें शुरू कीं। फिर पाँचों आदमी खड़े हो गये।
|