लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


ठिगने क़ैदी ने कहा–‘हममें से जो फूटे, उसे गऊहत्या!’

यह कहकर उसने बड़े ज़ोर से हाय-हाय करना शुरू किया। और भी कई आदमी चीखने-चिल्लाने लगे। एक क्षण में वार्डर ने द्वार पर आकर पूछा–‘तुम लोग क्यों शोर कर रहे हो? क्या बात है?’

ठिगने क़ैदी ने कहा–‘बात क्या है, काले खाँ की हालत ख़राब है। ज़ाकर जेलर साहब के बुला लाओ। चटपट।’

वार्डर बोला–‘वाह बे! चुपचाप पड़ा रह! बड़ा नवाब का बेटा बना है!’

‘हम कहते हैं जाकर उन्हें भेज दो, नहीं ठीक न होगा।’

काले खाँ ने आँखें खोलीं और क्षीण स्वर में बोला– ‘क्यों चिल्लाते हो यारों, मैं अभी मरा नहीं हूँ। जान पड़ता है, पीठ की हड्डी में चोट है।’

ठिगने क़ैदी ने कहा–‘उसी का बदला चुकाने की तैयारी है पठान!’

काले खाँ ने तिरस्कार के स्वर में बोला–‘किससे बदला चुकाओगे भाई, अल्लाह से? अल्लाह की यही मरज़ी है, तो उसमें दूसरा कौन दख़ल दे सकता है? अल्लाह की मरज़ी के बिना कहीं एक पत्ती भी हिल सकती है? ज़रा मुझे पानी पिला दो। और देखो, जब मैं मर जाऊँ तो यहाँ जितने भाई हैं, सब मेरे लिए ख़ुदा से दुआ करना। और दुनिया में मेरा कौन है? शायद तुम लोगों की दुआ से मेरी नजात हो जाय।’

अमर ने उसे गोद में सँभालकर पानी पिलाना चाहा; मगर घूँट के नीचे न उतरा। वह ज़ोर से कराहकर फिर लेट गया।

ठिगने क़ैदी ने दाँत पीसकर कहा–‘ऐसे बदमाश की गरदन तो उलटी छुरी से काटनी चाहिए!’

काले खाँ दीन-भाव से रुक-रुककर बोला–‘क्यों मेरी नजात का द्वार बन्द करते हो भाई। दुनिया तो बिगड़ गयी; क्या आक़बत भी बिगाड़ना चाहते हो? अल्लाह से दुआ करो, सब पर रहम करे। ज़िन्दगी में क्या हमने गुनाह किए हैं कि मरने के पीछे पाँव में बेड़ियाँ पड़ी रहें! या अल्लाह, रहम करो!’

इन शब्दों में मरने वाले की निर्मल आत्मा मानो व्याप्त हो गयी थी। बातें वही थीं जो रोज़ सुना करते थे; पर इस समय इनमें कुछ ऐसी द्रावक, कुछ ऐसी हिला देने वाली सिद्धि थी कि सभी जैसे उसमें नहा उठे। इस चुटकी-भर राख ने जैसे उनके तापमय विकारों को शान्त कर दिया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book