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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


प्रातःकाल जब काले खाँ ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी तो ऐसा कोई क़ैदी न था; जिसकी आँखों में आँसू न निकल रहे हों; पर औरों का रोना दुःख का था, अमर का रोना सुख का था। औरों की किसी आत्मीय के खो देने का सदमा था, अमर को उसके और समीप हो जाने का अनुभव हो रहा था। अपने जीवन में उसने यही एक नवरत्न पाया था, जिसके सम्मुख वह श्रद्धा से सिर झुका सकता था और जिससे वियोग हो जाने पर उसे एक वरदान पा जाने का भान होता था।

इस प्रकाश-स्तम्भ ने आज उसके जीवन को एक दूसरी ही धारा में डाल दिया जहाँ संशय की जगह विश्वास, और शंका की जगह सत्य मूर्तिमान हो गया था।

लाला समरकान्त के चले जाने के बाद सलीम ने हर एक गाँव का दौरा करके आसामियों की आर्थिक दशा की जाँच करनी शुरू की। अब उसे मालूम हुआ कि उनकी दशा उससे कहीं हीन है, जितनी वह समझे बैठा था। पैदावार का मूल्य लागत और लगान से कहीं कम था। खाने-कपड़े की भी गुंजाइश न थी, दूसरे खर्चों का क्या ज़िक्र? ऐसा कोई बिरला ही किसान था, जिसका सिर ऋण के नीचे दबा हो। कालेज में उसने अर्थाशास्त्र अवश्य पढ़ा था और जानता था कि यहाँ के किसानों की हालत खराब है, पर अब ज्ञात हुआ कि पुस्तकज्ञान और प्रत्यक्ष व्यवहार में वही अन्तर है, जो किसी मनुष्य और उसके चित्र में है। ज्यों-ज्यों असली हालत मालूम होती जाती थी; उसे आसामियों से सानुभूति होता जाती थी। कितना अन्याय है कि जो बेचारे रोटियों को मुहताज हों, जिनके पास तन ढकने को केवल चीथड़े हों, जो बीमारी में एक पैसे की दवा भी न कर सकते हों, जिनके घरों में दीपक भी न जलते हों, उनसे पूरा लगान वसूल किया जाय, जब जिन्स महँगी थी, तब किसी तरह एक जून रोटियाँ मिल जाती थीं। इस मन्दी में तो उनकी दशा वर्णनातीत हो गयी है। जिनके लकड़े पाँच-छः बरस की उम्र में मेहनत-मजूरी करने लगे, जो ईंधन के लिए हार में गोबर चुनते फिरें, उनसे पूरा लगान वसूल करना, मानो उनके मुँह से रोटी का टुकड़ा छीन लेना है, उनकी रक्त-हीन देह से ख़ून चूसना है।

परिस्थिति का यथार्थ ज्ञान होते ही सलीम ने अपने कर्त्तव्य का निश्चय कर लिया। वह उन आदमियों में न था, जो स्वार्थ के लिए अफ़सरों के हर एक हुक़्म का पाबन्दी करते हैं। वह नौकरी करते हुए भी आत्मा की रक्षा करना चाहता था। कई दिन एकान्त में बैठकर उसने विस्तार से अपनी रिपोर्ट लिखी और मि.गज़नवी के पास भेज दी। मि.गज़नवी ने उसे तुरन्त लिखा–आकर मुझसे मिल जाओ। सलीम उनसे मिलना न चाहता था। डरता था, कहीं यह मेरी रिपोर्ट को दबाने का प्रस्ताव न करें, लेकिन फिर सोचा–चलने में हरज ही क्या है? अगर मुझे क़ायल कर दें, तब तो कोई बात नहीं; लेकिन अफ़सरों के भय से मैं अपनी रिपोर्ट को कभी न दबने दूँगा। उसी दिन वह संध्या समय सदर जा पहुँचा।

मि. ग़ज़नवी ने तपाक से हाथ बढ़ाते हुए कहा–‘मि. अमरकान्त के साथ तो तुमने दोस्ती का हक़ खूब अदा किया। वह ख़ुद शायद इतनी मुफ़स्सिल रिपोर्ट न लिख सकते लेकिन तुम क्या समझते हो, सरकार को यह बातें मालूम नहीं?

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