उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सलीम ने कहा–‘मेरा तो ऐसा ही ख़याल है। उसे जो रिपोर्ट मिलती है, वह ख़ुशामदी अलहकारों से मिलती है, जो रिआया का ख़ून करके भी सरकार का घर भरना चाहते हैं। मेरी रिपोर्ट वाक़यात पर लिखी गयी है।’
दोनों अफ़सरों में बहस होने लगी। ग़जनवी कहता था– ‘हमारा काम केवल अफ़सरों की आज्ञा मानना है। उन्होंने लगान वसूल करने की आज्ञा दी। हमें लगान वसूल करना चाहिए। प्रजा को कष्ट होता हो, हमें इससे प्रयोजन नहीं। हमें ख़ुद अपनी आमदनी का टैक्स देने में कष्ट होता है; लेकिन मजबूर होकर देते हैं। कोई आदमी ख़ुशी से टैक्स नहीं देता।’
ग़ज़नवी इस आज्ञा का विरोध करना अनीति ही नहीं, अधर्म समझता था। केवल जाब्ते की पाबन्दी से उसे सन्तोष न हो सकता था। वह इस हुक्म की तामील करने के लिए सब कुछ करने को तैयार था। सलीम का कहना था–हम सरकार के नौकर केवल इसलिए हैं कि प्रजा की सेवा कर सकें, उसे सुदशा को ओर ले जा सकें, उसकी उन्नति में सहायक हो सकें। यदि सरकार की किसी आज्ञा से इन उद्देश्यों की पूर्ति में बाधा पड़ती है, तो हमें उस आज्ञा को कदापि न मानना चाहिए।’
ग़ज़नवी ने मुँह लम्बा करते कहा–‘मुझे खौफ़ है कि गवर्नमेन्ट तुम्हारा यहाँ से तबादला कर देगी।’
‘तबादला कर दे इसकी मुझे परवाह नहीं; लेकिन मेरी रिपोर्ट पर ग़ौर करने का वादा करे। अगर वह मुझे यहां से हटाकर मेरी रिपोर्ट को दाख़िल-दफ़्तर करना चाहेगी, तो मैं इस्तीफा दे दूँगा।’
ग़ज़नवी ने विस्मय से उसके मुँह की ओर देखा।
‘आप गवर्नमेन्ट की दिक़्क़तों का मुतरक़ अन्दाज़ा नहीं कर रहे हैं। अगर वह इतनी आसानी से दबने लगे, तो आप समझते हैं, रिआया कितनी शेर हो जायेगी। ज़रा-ज़रा सी बात पर तूफ़ान खड़े हो जायेंगे। और यह महज़ इस इलाके का मुआमला नहीं है, सारे मुल्क में यही तहरीक जारी है। अगर सरकार अस्सी फ़ीसदी काश्तकारों के साथ रियायत करे, तो उसके मुल्क का इन्तजाम करना दुश्वार हो जायेगा।’
सलीम ने प्रश्न किया–‘गवर्नमेन्ट रिआया के लिए है, रिआया गवर्नमेन्ट के लिए नहीं। काश्तकारों पर ज़ुल्म करके, उन्हें भूखों मारकर अगर गवर्नमेंट ज़िन्दा रहना चाहती है, तो कम-से-कम मैं अलग हो जाऊँगा। अगर मालियत में कमी आ रही है तो सरकार को अपना खर्च घटाना चाहिए। न कि रिआया पर सख़्तियाँ की जायँ।’
ग़ज़नवी ने बहुत ऊँच-नीच सुझाया; लेकिन सलीम पर कोई असर न हुआ। उसे डण्डों से लगान वसूल करना किसी तरह मंजूर न था। आख़िर ग़ज़नवी ने मज़बूर होकर उसकी रिपोर्ट ऊपर भेज दी, और एक ही सप्ताह के अन्दर उसे गवर्नमेण्ट से उसे पृथक् कर दिया। ऐसे भयंकर विद्रोही पर वह कैसे विश्वास करती?
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