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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।

7

यूनिवर्सिटी का एक अपना ही निराला संसार था। वहां लड़के और लड़कियां, दोनों पढ़ते थे। यूनिवर्सिटी के कमरों में तो क्या, उसकी चार दीवारी के अन्दर भी किसी प्रकार की उच्छृंखलता दृष्टिगोचर नहीं होती थी। चार घंटे तक सब ध्यान देकर पढ़ते थे। अधिकांश विद्यार्थी परिश्रमी होते थे और लगन के साथ अध्ययन करतें थे। अध्यापक भी अपने कर्तव्य का भली-भांति पालन करते थे। मदन ने देखा कि उसके समान योग्यता के तो वहां अनेक छात्र हैं किन्तु उससे अधिक योग्यता के भी कुछ छात्र उसको दिखाई दिये। वे प्रयोगशाला में भी उससे अच्छा कार्य दिखाते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि मदन बहुत परिश्रम से अपने अध्ययन में जुट गया। वह सायं आठ बजे से रात के ग्यारह बजे तक अपने विषय का अध्ययन करता था। एक मास का कठिन परिश्रम करने पर ही अपनी श्रेणी के विद्यार्थियों में वह अपनी प्रतिभा का छाप लगा पाया।

इस पर भी प्रयोगशाला में उसकी स्थिति तभी सुदृढ़ हुई जब उसको एक कारखाने में काम मिला। मध्याह्नोत्तर दो बजे से सायं छः बजे तक वह कार्य करता था। पांच डालर नित्य उसको इसका पारिश्रमिक मिलता था। महीने में पच्चीस दिन कार्य होता था। इस प्रकार वह सवा सौ डालर मासिक अर्जन कर लेता था। इस सवा सौ में से वह कॉलेज का खर्च देकर भी सौ डालर के लगभग बचा लेता। परिणाम यह हो रहा था कि उसका खाना-पीना भली प्रकार चल रहा था और छात्रवृत्ति को वह अपने ऊपरी खर्च पर व्यय करता था अथवा कभी-कभी लैसली तथा उसकी मां के लिए कुछ भेंट लाने के लिए उसे छूता था। भेंट देने में वह समझता था कि उनके मकान में रहने का कुछ तो प्रतिकार दे रहा है। लैसली इसका अर्थ मदन का अपने प्रति प्रेम समझती थी।

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