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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘मैंने इनका मुख चूम लिया। उस समय का अनुभव उस अनुभव से सैकड़ों गुणा अधिक आनन्ददायक था, जो छः वर्ष पूर्व का था।

‘‘फिर एक-दो मास बाद जब पुनः हमें एकान्त में मिलने का अवसर प्राप्त हुआ तो इन्होंने मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। इनकी पत्नी स्नेह भाभी बीमार थीं। मैं उनका समाचार लेने के बहाने इनके पास जाया करती थी। बी. ए. तक पढ़ाई करने के उपरान्त मैंने पढ़ाई छोड़ दी। घर पर मेरे विवाह की चर्चा होती थी। मैंने मन में निश्चय कर लिया था कि यदि घर में मेरे विवाह का निश्चय किया तो मैं घर से भाग जाऊंगी। परन्तु घर पर मेरे विवाह का कुछ निश्चय हो, उससे पूर्व तुम मेरे पेट में आ गईं। मैंने इनको सूचना दी तो इन्होंने मुझे घर से भाग जाने की राय दी। मेरे लिए देहरादून-रुड़की रोड पर एक बंगला लिया गया और मैं वहां जाकर रहने लगी। घर वाले मेरे लापता हो जाने पर रोये-गाये पर इन्होंने मेरा पता लगने नहीं दिया। तुम्हारे जन्म से पूर्व मेरी नौकरानी मेरी अवस्था समझकर भाग गई और मेरे प्रसव का प्रबन्ध दिल्ली-शाहदरा में किया गया। वहां एक लाला गोपीचन्द, जो पाकिस्तान से उजड़कर आये थे, के घर पर तुम्हारा जन्म हुआ। जन्म के दूसरे दिन मैं तुमको वहां छोड़ पुनः देहरादून चली गई।

‘‘तुम वहां पलीं और गोपीचन्द के पोते मदन मोहन से तुम बहुत हिल-मिल गई थीं। पांच वर्ष बीतने पर जब हम तुम्हें लेने गये तो तुम मदन के बिना आना नहीं चाहती थीं। तुमको धोखा देकर लाया गया और फिर बहुत प्यार और युक्ति से हम तुन्हें भुला सके कि मदन नाम का कोई व्यक्ति तुम्हारा परिचित भी था। तदनन्तर हम यहां चले आये। जैसे मैं घर से लापता हो गई थी, वैसे ही ये भी अपने माता-पिता और पत्नी को छोड़कर मेरे साथ अमेरिका आ गये। हमारा सम्बन्ध अटल है और हम बहुत प्रसन्न हैं।

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