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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि मेरे लिए तुम्हारे पापा एक ओर तथा सारी दुनिया दूसरी ओर–मेरे लिए तुम्हारे पापा ही सब-कुछ हैं। इसी प्रकार ये भी मुझे मानते हैं। प्रसन्नता और सन्तोष साथ-साथ चलते हैं। मेरी शुभकामनायें तुम्हारे साथ हैं।’’

मदन ने जब अपने बाबा का नाम सुना और उसके घर में एक लड़की की बात सुनी तो उसे पुरानी बातें स्मरण हो आईं। उसने बहुत ध्यान से लैसली के मुख पर देखा और आंखें मूंदकर चिन्तन करने लगा। उसको स्मरण हो आया कि लड़की क नाम लक्ष्मी था। अब उसको उसकी रूपरेखा स्मरण आने लगी। उसको वहीं रूपरेखा एक विकसित पुष्प की भांति लैसली के रूप में दिखाई देने लगी। वह धैर्यपूर्वक नीला के मुख से उसकी कहानी सुनता रहा। जब नीला कह चुकी तो मदन ने कहा, ‘‘पर मम्मी! उस लड़की का नाम तो लक्ष्मी था?’’

‘‘तो तुम उसको जानते हो?’’

‘‘गोपीचन्द मेरे बाबा हैं।’’

‘‘सत्य? तुम ही शाहदरा के समीप रहते थे?’’

‘‘हां, मैं नौ वर्ष की आयु तक वहां रहा। फिर बाबा ने दरियागंज में मकान ले लिया और हम उसमें रहने लगे।’’

‘‘यह लैसली ही लक्ष्मी थी। जब हम यहां आये तो स्वयं को अपने सम्बन्धियों से सर्वथा पृथक् रहने के लिए हमने नाम बदल दिये। डॉक्टर साहब ने तो अपने नाम के अक्षर ऐसे बनाये कि इन्हें कोई हिन्दुस्तानी समझ ही नहीं सकता। ये साहनी की स्पैलिंग अपने ढंग से ही लिखने लगे। मैंने भी अपने नाम के अक्षर बदल दिये। बैंक और अमेरिका नैशनल रजिस्टर में मेरे नाम के अक्षर हैं, एन-ई-आई-एल-आई-ई-एच। लक्ष्मी का नाम भी हमने इस प्रकार लिखाया है–एल-ए-एस-के-एम-एल-आई-ई।

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