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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘हमने लक्ष्मी को सर्वथा अमेरिकन बनाने के लिए इसके नाम के के. और एम. को मौन अक्षर मान लिया है। यह लैसली बन गई है।’’

जब लैसली और मदन अपने कमरे में आये तो मदन ने कहा, ‘‘मुझे यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई है कि तुम वही लक्ष्मी हो, जिसको उसके जन्म के दस दिन बाद मैंने अपनी गोद में लिया था और उसकी छोटी-छोटी उंगलियों और नाखूनों पर मैं मुग्ध हो गया था।’’

‘‘मैं जब आपके मुख पर देखती थी तो मुझको ऐसा प्रतीत होता था कि मैंने आपको देखा है। इसीलिए मैं कहा करती थी कि मैं आपके मुख पर देखकर समझती हूं कि मैं आपको जानती हूं तो मेरी समझ में आता था कि मैं कुछ नहीं जानती। आपके जिस रूप को मैं देखती थी वह एक टूटे-फूटे मैदान में नगधड़ंग, पांच-छ: वर्ष की आयु के मिट्टी से लथपथ लड़के का रूप था। मैं सोचती थी कि आप-जैसा सुन्दर युवक कभी भी वह नहीं हो सकता। जब मैं मन में समझ लेती थी कि वह भ्रम है तो आपका वर्तमान रूप दिखाई देता था और मैं समझती थी कि मैं जानती हूं।’’

‘‘कैसी विडम्बना है! मैं तुमको अपनी बहिन समझता था और लक्ष्मी मुझको भापा कहकर पुकारा करती थी।’’

‘‘ठीक है। थी मैं आपकी पत्नी। इसी कारण प्रकृति ने मुझे आपसे पृथक् कर दिया था। बहिन से मैं पत्नी के रूप में प्रकट हुई।’’

इस रहस्योद्घाटन के पन्द्रह दिन बाद ही यूनिवर्सिटी में लम्बा अवकाश हुआ और मदन तथा लैसली मिस्टर एम. एस. कपूर और मिसेज एल. कपूर के नाम से संसार भ्रमण के लिए निकल पड़े। दो मास तक घूमकर जब वे आये तो लैसली ने अपनी मां को प्रथम सूचना यह दी कि वह मां बनने वाली है।

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