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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘सत्य?’’ जैसे मानो नीला को विस्मय हो रहा हो, इस प्रकार पूछा।

‘‘हां, एक मास का हो गया प्रतीत होता है।’’

‘‘कुछ जल्दी है। इस पर भी मैं प्रसन्न हूं। शीघ्र ही मुझको भी कोई ग्राण्डी कहने वाला आयेगा।’’

मदन ने अपनी डाक देखी तो नौ पत्र महेश्वरी के रखे थे। दो फकीरचन्द के लिखे थे। मदन ने वे पत्र बिना पढ़े, उसी सन्दूकची में रख दिये, जहाँ उनके पत्र रखे थे।

एक दिन डॉक्टर ने बताया, ‘‘मदन! लाला फकीरचन्द के दो पत्र मुझे भी आ चुके हैं। वे तुम्हारे उनको पत्र न भेजने से चिन्तित हैं। मैं उनको उत्तर देना नहीं चाहता। यह तुम्हारा काम है और तुम जानो। जैसा उचित समझो, लिख दो।

‘‘किन्तु मैं इतना अवश्य कहूंगा कि जो बात अन्त में कहनी है वह पहले ही कह दो। लुकाव-छिपाव से कुछ लाभ नहीं होगा।’’

‘‘मैं कल लिख दूंगा।’’ मदन का विचार था कि वह फकीरचन्द की चिट्ठियां पढ़कर उसके अनुसार ही उत्तर देगा और महेश्वरी के सब पत्र बन्द-के-बन्द उसको वापस कर देगा। इस समय तो उसको कॉलेज जाना था।

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