उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
तृतीय परिच्छेद
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मदन के बाबा और दादी को अपनी मोटर में लेकर महेश्वरी मदन को विदा करने के लिए पालम हवाई अड्डे पर गई थी। उस दिन वह उन वृद्ध व्यक्तियों को उनके घर दरियागंज पर छोड़ने आई तो मदन की दादी ने लड़की को अपने पास बिठाया। उसकी पीठ पर हाथ फेर प्यार दिया और उसको बताया, ‘‘कल तुम्हारी सहेली की और तुम्हारी सब बातें जो तुमने मदन के साथ की थीं, मैंने सुनी हैं। बेटी! तुमने बिल्कुल ठीक किया था। आज इस युग में भी तुम में धर्म और आचार की पवित्रता देख मेरा चित्त प्रसन्न हो गया है।
‘‘देखों बेटी! हमारे पड़ौस में एक लड़की शीला रहती है। एक बार बेचारी के गर्भ ठहर गया तो वह किसी डॉक्टर से गर्भपात कराने के लिए चली गई। उस डॉक्टर ने पुलिस में रिपोर्ट कर दी। पुलिस में जांच हुई तो वह लड़की बक गई कि वह गर्भ उसके भाई का है। बड़ी मुश्किल से लड़की के पिता ने पुलिस को रिश्वत देकर मामले को रफा-दफा कराया और लड़की को अस्पताल में भरती करवा दिया।
‘‘बेटी! जत-सत पर कायम रहना ही हम हिन्दुओं का श्रृंगार है।’’
महेश्वरी प्रसन्न थी कि वह स्वयं पर नियन्त्रण रख सकी है। उसको इस बात से भी सन्तोष था कि मदन उसके इस व्यवहार से रुष्ट नहीं हुआ। मदन ने हवाई जहाज पर चढ़ने से पूर्व अपनी प्रसन्नता का संकेत उसको दे दिया था। उसने कहा था, ‘‘महेश्वरी! मैं कल एक भारी भूल करने जा रहा था। अच्छा ही हुआ कि अकेली नहीं आईं।’’
इस प्रकार यह घटना समाप्त हुई। इसके विस्मरण होने का पुष्ट प्रमाण तो तब मिला, जब टोकियो से मदन का प्रथम पत्र प्राप्त हुआ। महेश्वरी के पत्रों में मदन अपने बाबा और दादी को भी पत्र भेजता था। परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक पत्र आने पर वह मदन के बाबा का पत्र देने को लिए उनके घर जाती और दादी उसको मदन के बचपन की बातें सुनाया करती थी।
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