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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।

3

रात-भर महेश्वरी अपने मन के भावों का विश्लेषण करती रही। उसने सीधा हॉस्पिटल में जाकर मदन से मिलना उचित समझा। इस निर्णय के अनुसार अगले दिन वह नर्सिंग होम में जा पहुंची।

मदन का ऑपरेशन हो चुका था। केवल लोकल एनसथीसिया का प्रयोग कर चीरा दिया गया था। इससे मदन को अपने पूर्ण दुर्भाग्य का वृत्तान्त विदित था। इस समय वह अपना भविष्य बहुत ही भयंकर और अंधकारयुक्त अनुभव कर रहा था। डॉक्टर ने यह आश्वासन दिलाया था कि उसकी नकली टांगे लग जायेंगी। परन्तु उनसे भी वह बैसाखियों के आश्रय ही चल-फिर सकेगा। अर्थात् किसी प्रकार का चलने-फिरने का कार्य उससे नहीं होगा।

यह जान कर तो मदन ने अपने मन में निश्चय कर लिया था कि वह इस व्यर्थ के जीवन को समाप्त कर देगा। उसने ऑपरेशन से पूर्व डॉक्टर से कहा था, ‘‘डॉक्टर! मेरे भावी जीवन को देखते हुए क्या यह अच्छा नहीं होगा कि मुझे मृत्युकारक इंजेक्शन दे दिया जाय?’’

डॉक्टर कैथोलिक मतावलम्बी था। मदन के इस प्रस्ताव को सुनकर स्तब्ध-सा उसका मुख देखता रह गया। प्रकृतिस्थ होने पर उसने कहा, ‘‘मिस्टर स्वरूप! क्या अच्छा होगा और क्या नहीं? इसका निर्णय मैं नहीं कर सकता। मेरा कार्य जीवन बचाना है। और उस जीवन में बहार आयेगी अथवा पतझड़ यह तो परमात्मा ही जानता है। मैं ऐसा नहीं कर सकता।’’

मदन डॉक्टर से निराश हो लैसली द्वारा अपना काम तमाम कराने का विचार करने लगा। उसने ऑपरेशन के दिन प्रातःकाल एकान्त में लैसली से कहा, ‘‘लैसली डियर! मैं अपने और तुम्हारे लिए यह उचित समझता हूं कि मैं यह व्यर्थ का बोझिल जीवन समाप्त कर दूं।’’

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