उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
पिछली रात ऑपरेशन हुआ और उसने अपनी आंखों से चूर-चूर हुई हड्डियों को अपने पैरों से पृथक होते देखा। वह स्वयं को दो ठूंठ के पहियों में बंधा देख अपने मन के संकल्प में दृढ़ता का अनुभव कर रहा था। केवल अब अपने हॉस्पिटल से मुक्ति के दिन गिन रहा था। डॉक्टर की सम्मति थी कि एक मास में वह इस स्थिति में हो जायेगा कि यहां से स्ट्रेचर पर जा सके। छः मास के बाद उसकी टांगें इस योग्य हो जायेंगी कि वह नकली टांगे लगवा सके और उसके बाद एक वर्ष इस बात में लग सकता है कि वह नकली टांगों से चलने का अभ्यास कर घर से निकल सके। दो वर्ष तक बिस्तर पर पड़ा रहना उसको एक मुसीबत ही दिखाई दी थी। वह इससे पूर्व ही स्वयं को समाप्त कर इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से निकलने का विचार बना चुका था। उसको विश्वास था कि लैसली, जो दो-तीन दिन में इतना बदल गई है, कदाचित उसके अस्पताल से निकलने के पूर्व नवीन विवाह कर ले।
इन विचारों में लीन वह चारपाई पर लेटा अपने जीवन से निराश उससे मुक्ति के समय की प्रतीक्षा में था कि उसको अपने सिर के समीप पिछले द्वार से किसी के आने का आभास मिला। उसे रेशमी वस्त्रों की सरसराहट का शब्द सुनाई दिया। वह आशा कर रहा था कि आने वाला सामने तो आयेगा ही। परन्तु कोई नहीं आया। उसको विस्मय हो रहा था। दो मिनट प्रतीक्षा करने के उपरान्त उसने पूछा, ‘‘कौन है?’’
महेश्वरी उसके सम्मुख आकर खड़ी हो गई। उसकी आंखों से अविरल आंसू झर रहे थे। हाथ जोड़कर वह मदन के सम्मुख नत-मस्तक खड़ी हो गई। मदन तो अवाक् महेश्वरी को देखता ही रह गया। पांच मिनट वे एक-दूसरे को इसी प्रकार स्तब्ध-से देखते ही रहे।
महेश्वरी निमीलित नयन करबद्ध सामने खड़ी थी। उसके नयनों से निरन्तर अश्रुपात हो रहा था। और मदन? वह मूक, टुकर-टुकर उसका मुख देख रहा था। अन्त में उसने कहा, ‘‘महेश्वरी! बैठो।’’
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