उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
‘‘और यदि तुम भी वैसा ही करो, जैसा मैंने किया है तो क्या उसमें भी विचार करने का अधिकार नहीं रहेगा?’’
‘‘आप क्या करें अथवा न करें इस विषय में मैं कैसे बता सकती हूं? हां, मैं स्वयं ऐसी अवस्था में क्या करूंगी, यह मैं जानती हूं।’’
‘‘क्या जानती हो?’’
‘‘कभी ऐसा अवसर आया तो बता दूगीं। अभी बताना तो, ‘किबल अज मर्ज बावेल’ वाली बात होगी।’’
मदन इस बात के अनन्तर भी अपने मन के संकल्प के अनुसार करने का ही निश्चय किये हुए था। उसने कुछ अधिक नहीं केवल यह कहा, ‘‘मैं तो जानता नहीं कि अब मैं क्या कर सकूंगा और क्या करूंगा? मुझे तो अब जीवन व्यर्थ गया ही प्रतीत होने लगा है।’’
‘‘मैं जानती हूं कि आप क्या कर सकेंगे और क्या नहीं कर सकेंगे?’’
‘‘क्या?’’ मदन का विचार था कि यह भी कुछ ऐसी बात करेगी जैसी लैसली ने ‘इण्डस्ट्रीयल डिजाइनिंग’ की कही थी।
महेश्वरी ने कहा, ‘‘मैं यह समझती हूं कि इस शरीर का कार्य चलाने के लिए धन कमाने की आवश्यकता रहती है। धन कमाने में हमारा अधिकांश जीवन व्यतीत हो जाता है। इसमें हम जीवन का वास्तविक प्रयोजन जानने और इसका मुख्य लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं। अब आपको धन कमाने के लिए काम करने की आवश्ययकता नहीं रहेगी। इस जन्म की मुख्य समस्या समझने और उसके लिए यत्न करने के लिए अब आपके पास अपार समय होगा।’’
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