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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘क्या समस्या है इस जीवन की?’’

‘‘यही कि किस लिए यह जन्म हुआ है। इस विशाल ब्रह्माण्ड में,

जिसको आर-पार करने के लिए प्रकाश जैसी द्रुतगति से चलने वाली वस्तु भी सबल नहीं, बिन्दु समान इस पृथ्वी पर बसा हुआ नगण्य प्राणी क्या है और हम इसमें क्या करें? यह इतनी जटिल

समस्या है कि उसको सुलझाने के लिए हमारे पास बहुत कम समय है। अब आप इसमें अपने जीवन का प्रत्येक क्षण लगा सकेंगे।’’

‘और रोटी?’’

‘‘आपके बाबा पर्याप्त कमाकर रख गये हैं।’’

‘‘कमा कर रख गये हैं? क्यों, कहा गये है वे?’’

‘‘यही समस्या तो सुलझानी है। मृत्यु के अनन्तर मनुष्य कहां जाता है?’’

‘‘महेश!’’ अब मदन ने कुछ चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘बाबा गये? कब?’’

‘‘तो क्या आपको मेरे पत्र मिले नहीं?’’

मदन समझ गया कि जो पत्र उसने खोले ही नहीं, उनमें यह समाचार लिखा होगा। इससे वह इस बात का कोई उत्तर न दे सका।

इस समय लैसली आ गई। वह रेशमी साड़ी, ब्लाउज पहने किसी हिन्दुस्तानी औरत को मदन के समीप बैठी देख ठिठककर खड़ी रह गई। वह मन में विचार करने लगी कि यह मदन की मंगेतर हो सकती है। परन्तु वह यहां किस प्रकार आ गई? उसको किसने सूचना भेजी होगी? विस्मय में वह मदन और महेश्वरी का मुख देखती रह गई। आखिर मदन ने ही हिन्दी में महेश्वरी से कहा, ‘‘यह लैसली है।’’

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