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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
जब से मैंने देवलोक की चाकरी छोड़ी थी, तब से ही इस परिवार के प्रति मेरे दृष्टिकोण में परिवर्तन आना आरम्भ हो गया था। मैं इस परिवार के हितचिन्तकों में हो गया था। जहाँ पहले मेरा उद्देश्य यह रहा था कि इस परिवार के विनाश के साधनों को संकलित करता रहूँ, वहाँ अब मैं उस परिवार में पुनः श्रेष्ठता और धार्मिकता उत्पन्न करने का यत्न करना अपना कर्त्तव्य समझते लग गया था।
मुझे इस बात की प्रसन्नता थी कि मुझको राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा का कार्य सौंपा गया है। इस अवसर का लाभ उठाकर मैं उन्हें छोटी-छोटी कहानियाँ सुनाकर, उनमें मनुष्य की उत्कृष्ण भावनाएँ उत्पन्न करने का यत्न करने लगा था।
प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक मैं राजकुमारों के मानसिक विकास और शारीरिक गठन के उपाय किया करता था।
राजकुमारों की अवस्था बढ़ रही थी। मेरा कार्य उनको व्यायाम-शाला में ले जाना, उनको मल्ल-युद्ध का अभ्यास कराना, उनको देववाणी सिखाना तथा अन्य प्रकार से शिक्षा देना था। सायंकाल मैं इनको धनुर्विद्या तथा अन्य अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की शिक्षा दिलाया करता था।
रात्रि भोजनोपरान्त मैं कथाएँ सुनाता था। इस प्रकार राजकुमार दिन-दुगुनी और रात-चौगुनी उन्नति कर रहे थे। धृतराष्ट्र अत्यन्त सहनशील, सहिष्णुता से ओतप्रोत और धर्म की ओर प्रवृत्ति रखना था। पांडु अस्त्र-शस्त्र तथा धनुर्विद्या में निपुण होता चला जा रहा था। विदुर विरक्त रहकर धर्म सम्बन्धी विचार-विनिमय में समय व्यतीत करता था। इस प्रकार समय व्यतीत होने लगा।
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